मीरां के जीवन कविता की निर्मितियों का पुनरवलोकन
संगना । अंक 52-55। अक्टूबर 2023 -सितंबर,2024
मीरां का प्रचारित जीवन, उसके असल जीवन से अलग और बाहर, गढ़ा हुआ है। गढ़ने का यह काम शताब्दियों तक निरंतर कई लोगों ने कई तरह से किया है और यह आज भी जारी है। मीरां के अपने जीवनकाल में ही यह काम शुरू हो गया था। उसके साहस और स्वेच्छाचार के इर्द-गिर्द लोक ने कई कहानियाँ गढ़ डाली थीं। बाद में धार्मिक आख्यानकारों ने अपने ढंग से इन कहानियों को नया रूप देकर लिपिबद्ध कर दिया। इन आरंभिक कहानियों में यथार्थ और सच्चाई के संकेत भी थे, लेकिन समय बीतने के साथ धीरे-धीरे इनकी चमक धुँधली पड़ती गई। मीरां के जीवन में प्रेम, रोमांस और रहस्य के तत्त्वों ने उपनिवेशकालीन यूरोपीय इतिहासकारों को भी आकृष्ट किया। उन्होंने उसके सम्बन्ध में प्रचारित प्रेम, रोमांस और रहस्य के तत्त्वों को कहानी का रूप देकर मनचाहा विस्तार दिया। ऐसा करने में उनके साम्राज्यवादी स्वार्थ भी थे। आज़ादी के बाद मीरां के संबंध में कई नई जानकारियाँ सामने आईं, लेकिन कुछ उसके विवाह आदि से संबंधित कुछ नई तथ्यात्मक जानकारियाँ जोड़ने के अलावा उसकी पारंपरिक छवि में कोई रद्दोबदल नहीं हुआ। साहित्यिक इतिहासकारों और आलोचकों और बाद में नए प्रचार माध्यमों ने मीरां के स्त्री जीवन की कथा को पूरी तरह प्रेम, रोमांस, भक्ति और रहस्य के आख्यान में बदल दिया। उसके साहस और स्वेच्छाचार को वामपंथी और नए स्त्री विमर्शकार ले उड़े। उन्होंने इनकी मनचाही व्याख्याएँ कर डालीं। मीरां पर देशी-विदेशी विद्वानों ने कई शोध कार्य किए, लेकिन सभी ने कसौटियाँ और मानक अपने रखे। उसके संबंध में ज्ञात बहुत कम था इसलिए लोगों के पास अपने तयशुदा मानकों के अनुरूप उसका नया रूप गढ़ने की गुंजाइश और आज़ादी बहुत थी। लोगों ने इसका जमकर लाभ उठाया और अपनी-अपनी अलग और कई नयी मीरांएँ गढ़ डालीं। कहीं यह मीरां भक्त-संत थी, तो कहीं असाधारण विद्रोही स्त्री और कहीं रहस्य और रोमांस में डूबी प्रेम दीवानी। मीरां जीवन विरत संत-भक्त और जोगन नहीं थी, वह प्रेम दीवानी और पगली नहीं थी और वह वंचित-पीड़ित, उपेक्षित और असहाय स्त्री भी नहीं थी। वह एक आत्मसचेत, स्वावलंबी और स्वतंत्र व्यक्तित्व वाली सामंत स्त्री थी। उसकी भक्ति, साहस और स्वेच्छाचार असामान्य नहीं थे और वह जिस समाज में पली-बढ़ी उसमें इनके लिए पर्याप्त गुंजाइश और आज़ादी भी थी और कुछ हद तक इनकी स्वीकार्यता और सम्मान भी था। आलेख में मीरां की इन विभिन्न निर्मितियों पर विचार किया गया है।
प्रस्थान
मीराँ की मौजूदगी हिन्दी की आलोचना की परंपरा में बहुत सीमित है। परंपरा के संबंध में ख़ास बात यह है कि यह होकर भी दिखती नहीं है। परंपरा की जगह कभी-कभी खूँटे ले लेते हैं, जो दिखते ख़ूब हैं। परंपरा अपने खाद-पानी से आपको प्रस्थान में प्रवृत्त करती है, आपको मुक्त करती है, लेकिन खूँटे आपको बाँधते हैं। दुर्भाग्य से हिन्दी में परंपराएँ कम, खूँटे ज़्यादा हैं। हिन्दी आलोचना में कहीं-कहीं मीरां तो है, लेकिन सौभाग्य से इसका कोई खूँटा अभी तक नहीं बना है। हिन्दी आलोचना का ध्यान ही मीरां की तरफ़ बहुत कम गया। जो थोड़ा बहुत ध्यान गया, वो मीरां से संबंधित प्रचारित आरंभिक जानकारियों तक सीमित रहा। मुंशी देवीप्रसाद ने और कई कवियों के साथ मीरां से संबंधित आरंभिक जानकारियाँ मिश्रबंधुओं को उपलब्ध को करवाईं। मिश्रबंधु विनोद से लेकर इनका उपयोग रामचंद्र शुक्ल ने किया। रामचंद्र शुक्ल के कंधों पर हिंदी साहित्य को एक अकादमिक अनुशासन में ढालने का महत्त्वपूर्ण दायित्व भी था, इसलिए उनकी चिंताएँ और सरोकार दूसरे थे। वे मनीषी थे- सूर, तुलसी, जायसी पर उन्होंने विस्तार और मनोयोग से विचार किया, लेकिन फुटकर की श्रेणी में वाले रचनाकारों की नयी पहचान और समझ बनाने के बजाय उनका ज़ोर उनको किसी वर्गीकरण और विभाजन ‘फ़िट’ में रखने पर ज़्यादा रहा। उन्होंने मुंशी देवीप्रसाद की जानकारियों को पुनः प्रस्तुत करते हुए मीरां की भक्ति-उपासना को अपनी तरफ़ से माधुर्य भाव के खाँचे में रख दिया। हिन्दी की अकादमिक आलोचना में मीरां की यह पहचान रूढ़ि बन गई।
मीरां की कोई पहचान बनाने के लिए रूढ़ि और रूपक से परहेज़ बहुत ज़रूरी है। यह विडंबना ही है कि हिंदी आलोचना में रूपकों पर निर्भरता का रिवाज़ कुछ ज़्यादा ही है। इसमें पहले विचार के रूपकों का बोलबाला रहा और अब विमर्श के नए रूपकों का बाज़ार गर्म है। रूपक निर्मिति या संरचना है-उसमें ज़ोर व्यवस्था और एकरूपता पर होता है। अलग, आगे, हटकर और अतिरिक्त के लिए उसमें जगह मुश्किल से ही निकलती है। इस सबकी इसमें या तो अनदेखी होती है या काट-छाँट। मनुष्य का रूपकीकरण संभव नहीं है, क्योंकि इधर-उधर, आगे-पीछे, अलग और अतिरिक्त, ये सब मनुष्यता के बुनियादी गुणधर्म हैं। रूपक में ढालने के दौरान किसी मनुष्य अस्तित्व में जैसे ही हमें इधर, उधर और अतिरिक्त कुछ दिखता है, तो लगता है यह अंतर्विरोध या यह विसंगति है। यदि कोई मनुष्य है, तो यह सब होना उसके मनुष्य होने में शामिल है। रूपकों की आदत और संस्कार वाले लोगों को यह मीरां अच्छी नहीं लगेगी। यह रूपक की सीमित मीरां से अलग इधर, उधर, अलग और अतिरिक्त मनुष्य मीरां है। यह अलग-अलग रूपकों में ढली हुई सीमित और कटी-छँटी केवल भक्त या केवल विद्रोही या केवल प्रेमी या केवल पवित्रात्मा या केवल सामंत मीरां नहीं है। यह एक साथ सामंत, विद्रोही, भक्त, प्रेमी, पवित्रात्मा, कवियित्री आदि सब है। उसमें एक मनुष्य अस्तित्व में जो होता है, कमोबेश सभी कुछ है।
मीरां का यह मनुष्य रूप रूढ़ि और रूपक में सोचने-समझने के संस्कारी और अभ्यासी लोगों को अच्छा नहीं लगेगा। कुछ लोग उसे विद्रोह की रूढ़ि में ही देखना चाहते हैं, जबकि कुछ अन्य की अपेक्षा है कि वह पितृसत्तात्मक अन्याय और उत्पीडन के रूपक में हो। वैसे भी विद्रोह विभक्त मनोदशा वाले भारतीय मध्य वर्ग की काम्य छवि है। अपने निजी जीवन से बाहर विद्रोह के रूपक और छवियाँ गढ़ना-ढूँढ़ना उसका प्रिय शग़ल है। मीरां ने विद्रोह नहीं किया, ऐसा नहीं है। मीरां ने विद्रोह किया, लेकिन यह एक सामान्य पारिस्थितिक विद्रोह था। इसको किसी साँचे-खाँचे के विद्रोह की तरह देखना-समझना ग़लत होगा। यह विद्रोह की निर्धारित सैद्धांतिकी का सत्ता के विरूद्ध स्थायी प्रतिरोध जैसा विद्रोह नहीं है। इसे वैसा बनाने के लिए काट-छाँट और जोड़-बाकी करनी पड़ेगी, जो उसके असल विद्रोह को ही बदल देगी। विमर्श की सैद्धांतिकी के अनुसार स्त्री के दुःख का कारण पितृसत्तात्मक अन्याय और उत्पीड़न है। मीरां इसके सिद्धांताकारों को इसी रूपक में जँचती है। मीरां उनके अनुसार पितृसत्तात्मक संस्थाओं और विश्वासों के विरोध में खड़ी है। यह सही है कि हम पितृसत्तात्मक समाज हैं, लेकिन हम यह भूल जाते हैं कि यूरोप की एकरूप पितृसत्ता की तुलना में यह हमारे यहाँ यह कई रूप लिए हुए है। पितृसत्ता भी यदि एक सांस्कृतिक संरचना है, तो इसकी सार्वभौमिक और सार्वकालिक पहचान कैसे संभव है? हमें यह तो देखना ही पड़ेगा कि कौन-सा पितृसत्तात्मक समाज स्त्री को मनुष्य होने की जगह ज़्यादा देता है। मीरां का कृष्ण से प्रेम उसकी पति से नाराज़गी के कारण नहीं है। यह पारंपरिक भक्ति संस्कार के कारण है, इसलिए पारिस्थितिक है। मीरां जिस पितृसत्तात्मक समाज में है, वही उसे मीरां होने का साहस भी देता है और उसके इस साहस का सदियों तक सम्मान भी करता है। रूपक में सुविधा होती है, उसका सम्मोहन भी होता है, लेकिन कई बार इसकी तांत्रिक ज़रूरतें आपको बहुत ग़लत और आधारहीन निष्कर्षों पर पहुँचा देती है। आपको पता ही नही लगता है कि आप वहाँ पहुँच गए हैं, जो है ही नहीं। मीरां के संबंध में ऐसा बहुत हुआ। विमर्शकारों ने यह कह दिया कि मीरां ने यौन शुचिता को चुनौती दी। जो लोग मीरां के समाज और उसके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य के जानकार हैं, वे यह जानते हैं कि यह संभव नहीं है। मीरांकालीन समाज में स्त्रियों की हालत और हैसियत को लेकर जो धारणाएँ बनाई गई हैं उनका भी हक़ीक़त से कोई रिश्ता नहीं है और ये ज़्यादातर रूपक की ज़रूरत के तहत गढ़ी-बनाई गई हैं।
मीराँ को जानने-समझने के लिए दाख़िल-ख़ारिज से परहेज़ भी बहुत ज़रूरी है। हिंदी में दाख़िल-ख़ारिज की कुप्रथा की जड़ें बहुत गहरी है। मीरां की असल पहचान और समझ नही बनने देने में इस कुप्रथा की निर्णायक भूमिका है। विचार और विमर्श पर निर्भरता ने हमारे सोचने-समझने ढंग में कई अंतर्बाधाएँ खड़ी कर रखी हैं। अकसर जिसे हम दाख़िल करते हैं, उसका सब आँख मूँद दाख़िल कर लेते हैं और जिसे दाख़िल करते हैं उसे आँख मूँद एकतरफ़ा ख़ारिज कर देते हैं। दाख़िल में से कुछ को ख़ारिज और ख़ारिज में से कुछ को दाख़िल करने का रिवाज़ हमारे यहाँ अभी बना ही नहीं है। जिसे आप दाख़िलल कर रहे हैं उसमें कुछ तो ख़ारिज क़ाबिल भी होगा ही और जिसे आप ख़ारिज कर रहे हैं उसमें कुछ भी दाख़िल क़ाबिल नहीं है, ऐसा तो हो ही नहीं सकता। मीरां की पहचान और समझ बनाने वाले ज़्यादातर लोगों ने ‘सामंती’ को मनुष्य विरोधी मानकर पूरी तरह ख़ारिज कर दिया। गोया ‘सामंती’ में मनुष्यता का कोई लक्षण होता ही नहीं हो। देश भाषा स्रोतों को झूठ और अतिरंजित की श्रेणी में डालकर दरकिनार कर दिया, जैसे अतिरंजना और झूठ का तथाकथित ‘आधुनिक’ से संबंध ही नहीं हो। सामंतवाद यूरोप में भी था और हमारे यहाँ भी था। हमारे यहाँ सामंतवाद हमारे सांस्कृतिक वैविध्य के अनुसार कई तरह का था। लेफ्टिनेंट कर्नल टॉड तो यूरोप से था। उसने यूरोपीय सामंतवाद की तुलना मेवाड़-मारवाड़ के सामंतवाद से की। उसने मेवाड़-मारवाड़ की सामंती प्रथा को यूरोप की तुलना में अच्छा पाया। यहाँ राजस्थान के मेवाड़-मारवाड़ के समाज के कई पहलुओं की सकारात्मक पहचान जिन लोगों की अच्छी नहीं लगेगी, उनको यह समझना चाहिए कि जब सामंती प्रथा सभी समाजों में थी, तो यह देखा जाना चाहिए कि उनमें से किसमें मनुष्य होने की गुंजाइश ज़्यादा थी। सब धन बाइस पंसेरी नहीं होता और यदि होता है, तो उससे आप किसी युक्तिसंगत निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकते।
मीरां के समाज की पहचान प्राचारित से कुछ हद अलग है। यह उन लोगों अच्छी नहीं लगेगी, जिन्होंने इस समाज के बारे में अपनी राय पहले से बना रखी है। जो तयशुदा है, उसको बदलना आसान काम नहीं है। वास्तविकता, जो बहुत विविध और जटिल है और निरंतर बदलती भी रहती है, उसको समझना और उसकी नयी पहचान बनाना बहुत मुश्किल काम है। इसको किसी तयशुदा रूपक में ढालकर व्यवस्थित कर लेना सुविधाजनक और आसान है। इस ‘शार्टकट’ से बनी मीरां के समाज की एक रूपकीय पहचान विचार और विमर्श पर निर्भर लोगों के पास पहले से है। इस पहचान का हक़ीक़त से कोई संबंध नहीं है। यह पहचान शास्त्र निर्भर पहचान है और इसका सामाजिक जीवंत गतिशीलता से कोई लेना-देना नहीं है। शास्त्र अकसर रूढ़ियो से बनते हैं। सही तो यह है कि रूढ़ि शास्त्र का प्रस्थान और बुनियाद, दोनों हैं। जब तक रूढ़ि शास्त्र बनती है, समाज उसको छोड़ कर आगे निकल चुका होता है, इसलिए शास्त्र के आधार पर किसी समाज की पहचान और समझ हमेशा आधी-अधूरी होती है। मीरां का समाज रूढ़ियों के ढेर से बने शास्त्र से बाहर का अलग समाज है। भक्ति आंदोलन जीवंत और गतिशील अपने लोक-समाज के खाद-पानी से है। यह समाज उसको धारण भी करता है और उसको संरक्षण भी देता है। अब यह कैसे हो सकता है कि भक्ति आंदोलन तो अच्छा है, लेकिन उसको धारण करनेवाला और उसको खाद-पानी देने वाला समाज ख़राब है।
मीरां के समाज का परिप्रेक्ष्य बहुत व्यापक है और इसमे कोई राय अपवादों के आधार पर नहीं बनाई जा सकती। यह रूढ़ि बन गई है किसी समाज की समझ और पहचान बनाने में विमर्शकारों का ध्यान एक तो अपवादों पर रहता है और दूसरे वे अकसर समय के किसी एक हिस्से को उसके पूर्वापर से काटकर उसके आधार पर निष्कर्ष निकालते हैं। स्त्रियों के उत्पीड़न और उनके विरुद्ध अन्याय के दो उदाहरण उनको स्त्रियों की सुरक्षा और उनके स्वावलंबन की चिंता के सौ प्रावधानों की तुलना में बड़े लगते हैं। कोई समाज कभी पूरी तरह आदर्श समाज नहीं होता। उसमें अच्छा-बुरा हमेशा एक साथ चलता रहता है। कोई समाज कभी पूरी तरह केवल अच्छा और केवल ख़राब भी नहीं होता, इसलिए उसकी पहचान उसी तरह होनी चाहिए। मीरां के समाज के बारे में सामान्यीकरण अधिक हुआ है और उसके वैविध्य की अवहेलना हुई है। किसी समाज के संबंध में निष्कर्ष उसके विस्तृत ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में निकाले जाने चाहिए। कोई समाज किसी नवाचार को तत्काल स्वीकृति नहीं देता। उसमें प्रतिरोध और आत्मसातीकरण प्रक्रिया निरंतर और लंबे समय तक चलती रहती है। कोई प्रतिरोध हमेशा नहीं रहता और कोई आत्मसातीकरण स्थायी नहीं होता। प्रतिरोध आत्मसात होता है और आत्मसात होने के बाद यथावश्यकता फिर प्रतिरोध भी होता है। मीरां के साहस और स्वेच्छाचार का भी प्रतिरोध स्वाभाविक था, लेकिन एक तो यह समाज के सभी तबकों में नहीं था और दूसरे यह हमेशा नहीं रहा। समाज का कुछ हिस्सा शुरू से ही उसके समर्थन में था, तो कुछ तबकों में उसका प्रतिरोध जल्दी ख़त्म हो गया और कुछ को उसको आत्मसात करने में देर लगी। यहाँ समाज के इस स्वभाव को ध्यान में रखा गया है। यहाँ ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य बहुत व्यापक, नवीं-दसवीं सदी से उपनिवेशकाल तक फैला हुआ है और समाज के संबंध में राय भी अपवादों के बजाय उसके व्यापक ‘चाल-चलगत’ के आधार पर बनाई गई है।
मीरां जानने-समझने के लिए केवल उसकी कविता पर निर्भरता सही नहीं है। मीरां के जीवन से संबंधित ज़्यादातर उपलब्ध विमर्श और आख्यान उसकी कविता के अंतःसाक्ष्यों पर आधारित हैं। इस कारण उसके जीवन के संबंध में कई कथाएँ और प्रवाद चल निकले हैं। मीरां की कविता का चरित्र ऐसा है कि केवल इस पर निर्भरता आपको ग़लत और भ्रामक निष्कर्षों पर ले जा सकती है। दरअसल मीरां की कविता सदियों से केवल मीरां की कविता नहीं है। यह ऐसी है कि हमारा लोक भी उसमें रच-बस गया है। उसमें हमारे लोक के सुख-दुःख और कामनाओं का की जमकर जोड़-बाकी हुई है। मीरां कविता इस जोड़-बाकी से इतनी समावेशी और उदार और लचीली हो गई है कि इससे आप कुछ भी सिद्ध कर सकते हैं। यहाँ भी कविता के अंतःसाक्ष्यों का इस्तेमाल वहीं हैं, लेकिन वहाँ जहाँ इतिहास, आख्यान और लोक की किसी धारणा या तथ्य की पुष्टि के लिए अपेक्षित है।
मीरां की समेकित और असल पहचान में देश भाषा स्रोतों का बहुत ज़रूरी और निर्णायक महत्त्व है। दरअसल भक्तमाल, परची, चरित, बही, विगत, वंश, ख्यात आदि रचनाएँ और जनश्रुतियाँ हमारे समाज के सांस्कृतिक व्यवहार का ज़रूरी हिस्सा हैं। ये सब उसकी सांस्कृतिक भाषा भी हैं। कोई इनको जाने-समझे बिना इस समाज को समझने का दावा करना सही नहीं है। दरअसल ‘दस्तावेज़ी साक्ष्य’ का यह ख़ास आग्रह का इतिहास की यूरोपीय शिक्षा और संस्कार से आया है और विडंबना यह है यह आज भी बरकरार है। सभी देश-समाज यूरोप जैसे होंगे और वहाँ भी वही सब मिलेगा, जो यूरोप में मिलता है, यह आग्रह ही ग़लत है। रवीद्रनाथ ठाकुर ने तो यह बहुत आरंभ में समझ लिया था। उन्होंने एक जगह कहा था कि “दरअसल इस अंधविश्वास का परित्याग कर दिया जाना चाहिए कि सभी देशों के इतिहास को एक समान होना चाहिए। रॉथ्सचाइल्ड की जीवनी को पढ़कर अपनी धारणाओं को दृढ़ बनाने वाला व्यक्ति जब ईसा मसीह के जीवन के बारे में पढ़ता हुआ अपनी ख़ाता-बहियों और कार्यालय की डायरियों को तलाश करें और अगर वे उसे न मिलें, तो हो सकता है कि वह ईसा मसीह के बारे में बड़ी ख़राब धारणा बना ले और कहे: ‘एक ऐसा व्यक्ति जिसकी औकात दो कौड़ी की भी नहीं है, भला उसकी जीवनी कैसे हो सकती है?’ इसी तरह वे लोग जिन्हें ‘भारतीय आधिकारिक अभिलेखागार’ में शाही परिवारों की वंशावली और उनकी जय-पराजय के वृत्तांत न मिलें, वे भारतीय इतिहास के बारे में पूरी तरह निराश होकर कह सकते हैं कि ‘जहाँ कोई राजनीति ही नहीं है, वहाँ भला इतिहास कैसे हो सकता है?’ लेकिन ये धान के खेतों में बैंगन तलाश करने वाले लोग हैं। और जब उन्हें वहाँ बैंगन नहीं मिलते हैं, तो फिर कुण्ठित होकर वे धान को अन्न की एक प्रजाति मानने से ही इनकार कर देते हैं। सभी खेतों में एक-सी फ़सलें नहीं होती हैं। इसलिए जो इस बात को जानता है और किसी खेत विशेष में उसी फ़सल की तलाश करता है, वही वास्तव में बुद्धिमान होता है।” यहाँ धान के खेत में धान की ही तलाश है और इसमें इसीलिए मीरां के समाज के सांस्कृतिक व्यवहार और भाषा की सब चीज़ों को आग्रहपूर्वक ‘साक्ष्य’ की जगह भी दी गई है। मीरां के संबंध में ख़ास बात यह है कि वह इतिहास, आख्यान, लोकस्मृति, कविता आदि में निरंतर इधर-उधर और अलग के बावजूद भी बदलती नहीं है। सदियों बाद भी उसके असल रूप के कुछ संकेत इन सभी रूपों में मौजूद हैं।
‘इतिहास’ के आग्रह
मीरां के जीवन के संबंध में आधुनिक इतिहास की कसौटी पर खरी उतरनेवाली प्रामाणिक जानकारियाँ बहुत कम मिलती हैं। मीरां किसी सत्तारूढ़ की बेटी और पत्नी नहीं थी, इसलिए मेवाड़ से संबंधित इतिहास के पारंपरिक ख्यात, बही आदि रूपों में उसका उल्लेख नहीं के बराबर है। राजस्थान के राजपूत शासकों की स्त्रियों को भी इतिहास में दर्ज़ करने की परम्परा थी। सांमत स्त्रियों के अपने पारंपरिक इतिहासकार थे, जिनको राणीमंगा कहा जाता था। राणीमंगा रानियों और उनकी संततियों का वत्तांत लिखते थे और अपनी आजीविका के लिए रानियों पर निर्भर थे। मेवाड़ में यह परंपरा केवल सत्तारूढ़ सामंतों की स्त्रियों को ही अपने दायरे में लेती थी, इसलिए शेष राजपूत स्त्रियों का उल्लेख इसमें नहीं के बराबर है। मीरां का पति भोजराज अपने पिता राणा सांगा के जीवत रहते ही मर गया। इस तरह मीरां को किसी सतारूढ़ शासक की पत्नी होने का गौरव प्राप्त नहीं हुआ और वह ख्यात-बहियों में में दर्ज़ होने से रह गई। केवल मारवाड़ के राणीमंगा भाट केहरदान और दाऊदान के बही में उसका नामोल्लेख मिलता है। मीरां का कथित आधुनिक ढंग के इतिहास में पहला उल्लेख लेफ्टिनेंट कर्नल जेम्स टॉड ने अपने राजस्थान के विख्यात और चर्चित इतिहास एनल्स एंड एंटीक्विटीज़ ऑफ़ राजस्थान में किया। टॉड अध्यवसायी था, राजस्थान से उसे लगाव था, लेकिन एक तो उसके समय में जानकारियों के स्रोत सीमित थे और दूसरे, वह यूरोपीय था। उसने अपने समय में उपलब्ध सीमित जानकारियों को आधार बनाकर अपने यूरोपीय संस्कार और रुचि के अनुसार मीरां की पवित्रात्मा और रहस्यमयी कवयित्री संत-भक्त छवि गढ़ी। कालांतर में इतिहास और साहित्य में मीरां की यही छवि चल निकली। बाद में इतिहासकार श्यामलदास, मुंशी देवीप्रसाद, हरिनारायण पुरोहित, ठाकुर चतुरसिंह, गौरीशंकर हीराचंद ओझा और जर्मन प्राच्यविद हरमन गोएट्जे ने मीरां के जीवन से संबंधित कई नई जानकारियाँ जुटाईं। ये जानकारियाँ महत्त्वपूर्ण थीं, लेकिन टॉड के कैननाइजेशन की लोकप्रियता के कारण लोगों का ध्यान इन पर इन पर कम गया। इन नई जानकारियों की रोशनी में मीरां की निर्मित छवि में रद्दोबदल की कोई पहल नहीं हुई। अधिकांश स्त्री और वामपंथी विमर्शकारों ने श्यामलदास, मुंशी देवीप्रसाद, हरिनारायण पुरोहित, गौरीशंकर हीराचंद ओझा आदि को ‘सामंती’ या ‘दरबारी’ मानकर बिना जाने-समझे ही ख़ारिज कर दिया। मुंशी देवीप्रसाद ने बहुत परिश्रमपूर्वक मीरां के जीवन संबंधी जानकारियाँ जुटाकर मीरांबाई का जीवन चरित्र शीर्षक से एक विनिबंध लिखा, लेकिन कम लोगों ने इसका उपयोग किया। मीरां के जीवन और कविता के संबंध में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण शोध कार्य संत साहित्य के विद्वान् हरिनाराण पुरोहित ने मीरां के पितृपक्ष के वंशज और इतिहासकार ठाकुर चतुरसिंह के सहयेाग से किया। उन्होंने मीरां के संबंध में जो जानकारियाँ जुटाईं वो कमोबेश प्रामाणिक थीं, लेकिन ये नए स्त्रीविमर्शकारी और वामपंथी समालोचकों की तयशुदा धारणाओं के अनुकुल नहीं थीं, इसलिए इनको दरकिनार कर दिया गया।
आख्यान और जनश्रुतियाँ
पारंपरिक इतिहास रूपों में तो मीरां नहीं थी, लेकिन धार्मिक चरित्र-आख्यानों में वह कमोबेश सभी जगह थीं और ख़ास बात यह है कि इनमें उसको जगह उसके जीवन के सौ-पचास साल बाद ही मिल गई। नाभादास के भक्तमाल में संक्षिप्त उल्लेख के बाद लगभग सभी भक्तभालों में उसका उल्लेख मिलता है। नाभादास के शिष्य प्रियादास ने भक्तमाल की अपनी भक्तिरस बोधिनी टीका में अपने समय में लोक मे प्रचलित मीरां संबंधी लगभग सभी जानकारियों और जनश्रुतियों का उपयोग विस्तार से किया है। संत-भक्तों की परचियाँ लिखने वाले सुखशारण की एक स्वतंत्र मीरांबाई की परची भी है। मीरां का उल्लेख भविष्यपुराण में भी आता है। भक्तमालों और परची में मीरां का वर्णन एक अतिमानवीय चमत्कारी स्त्री संत-भक्त के रूप में है। इनमें आधार मीरां संबंधी जनश्रुतियाँ हैं, जो मीरां के अतिमानवीय संत-भक्त रूप की पुष्टि के लिए लोक और भक्तों द्वारा गढ़ी गई हैं। इतिहास में उल्लेख नहीं होने के कारण यही जनश्रुतियाँ मीरां को जानने-समझने का आधार हैं। विडंबना यह है कि इन जनश्रुतियों को अभी ठीक से पढ़ा नहीं गया है। मीरां को समझने-समझाने वाले लोगों ने या तो इनको पूरी तरह सच मान लिया गया है या फिर झूठ मानकर पूरी तरह दरकिनार कर दिया है। जनश्रुतियाँ मिथ्या नहीं होतीं- ये समाज की सांस्कृतिक भाषा है। इस भाषा का अपना अलग व्याकरण और व्यवस्था है। किसी समाज को समझने के लिए के लिए इस व्यवस्था और व्याकरण की सम्यक समझ ज़रूरी है। गत सदी के पूर्वार्ध में हमारे यहाँ यूरोपीय ढंग का आधुनिक होने की इतनी जल्दी और हड़बड़ी थी कि हमने अपने समाज की अधिसंख्य जनश्रुतियों को युक्ति और तर्क की कसौटी पर कस कर ख़ारिज कर दिया। मीरां को समझने के लिए भी उससे संबंधित जनश्रुतियों का पुनःपाठ और विश्लेषण ज़रूरी है। इन जनश्रुतियों में मीरां के संघर्ष, दुःख और ख़ास किस्म की भक्ति के सभी संकेत विद्यमान हैं। ख़ासतौर पर मीरां की जीवन यात्रा की कड़ियों को एक-दूसरे से जोड़ने के लिए उनकी सहायता बहुत ज़रूरी है। उसके जीवन के कुछ अंधकारपूर्ण हिस्सों की पुनर्रचना केवल तत्कालीन ज्ञात ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में जनश्रुतियों के सटीक के समायोजन से ही हो सकती है। गुजरात और बाद के मीरां के उत्तर जीवन से संबंधित जानकारियों का स्रोत केवल जनश्रुतियाँ हैं।
कविता की मीरां
मीरां के जीवन के संबंध में ज्ञात और प्रचारित अधिकांश जानकारियों का स्रोत उसकी कविता है। मीरां की कविता के संबंध में ख़ास बात यह है कि उसका मूल रूप तय नहीं हैं। मीरां की कविता के कई संस्करण और कई पाठ हैं। यह कई भाषाओं में है। मीरां की कविता को लोक ने सदियों तक बरता और इसे अपनी ज़रूरतों के हिसाब से बदला और बढ़ाया। मीरां की मूल रचनाओं की खोज और निर्धारण के एकाधिक प्रयास हुए। हरिनारायण पुराहित ने मीरां की मूल रचनाओं की खोज और पहचान के लिए आजीवन श्रम किया। उन्होंने इसके लिए कुछ कसौटियां भी बनाईं। लेकिन इस कार्य को अंतिम रूप देने से पूर्व ही उनका निधन हो गया। उनकी चयनित और संपादित ये रचनाएँ बाद में राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान से प्रकाशित हुईं। मीरां के उपलब्ध पाठों के अलावा मीरां के नाम से लोक द्वारा गढे गए ‘हरजस’ भी हैं, जिसमें उसके जीवन संबंधी कई संकेत मोजूद हैं। यह सही है कि मीरां की कविता और हरजसों के अंदर मौजूद उसके जीवन संबंधी जानकारियाँ आधुनिक विद्वानों की निगाह में ‘ऐतिहासिक’ नहीं हैं और इनको तथ्य या साक्ष्य की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, लेकिन ये पूरी तरह झूठ भी नहीं है। लोक तथ्यों को बदलता-बिगाड़ता ज़रूर है, लेकिन जब तक कोई सच्चाई नहीं हो, वह अपनी तरफ़ से तथ्य गढ़ता नहीं है। घटनाओं और व्यक्तियों की जानकारियाँ सदियों तक लोक में नदी के पत्थरों की तरह बहती-लुढकती रहती हैं। उनका रूप बदलता लेकिन उनमें उनके मूल का कोई-न-कोई अंश ज़रूर रहता है। मीरां की कविता को सदियों तक लोक ने अपनी ज़रूरतों के हिसाब से इस्तेमाल किया। लोक ने उसको घटाया-बढ़ाया और नया बनाया, लेकिन उसके इस रूप में उसका मूल भी मौजूद है। इन कविताओं और हरजसों में मौजूद मीरां के जीवन संबंधी जानकारियाँ अक्षरशः सही नहीं है लेकिन ये पूरी तरह मिथ्या भी नहीं है। इन संकेतों को इतिहास के उपलब्ध तथ्यों की सहवर्तिता में समझा जाए तो ये अपने असल रूप में सामने आ जाते हैं।
विमर्शों के रूपक
मीरां के अब तक प्रचारित जीवन के संबंध में ख़ास बात यह है कि यह अधिकांशतः किसी ख़ास प्रकार के नज़रिये को सही ठहराने के लिए गढ़ा और बुना गया है। इन नज़रियों के अपने नाप-जोख और साँचे-ख़ाँचे हैं। इनकी ज़रूरतों के हिसाब से मीरां के जीवन से संबंधित जानकारियों में से या तो केवल कुछ चुनकर शेष दरकिनार कर दी गई हैं या कुछ नई गढ़ ली गई हैं। मीरां की प्रचारित भक्त और कवि छवि गढने वालों के पास शास्त्र में भक्ति और कविता के नाप-जोख और साँचे थे। मीरां की कविता इतनी विविध, सामवेशी और लचीली है कि उनको उसमें जैसा वे चाहते थे सब मिल गया। उन्होंने जब उसको सगुण कहना चाहा तो उनको उसमें सगुण के लक्षण मिल गए और जब वे जब शास्त्र के तयशुदा नाप-जोख लेकर माधुर्य खोजने निकले तो उनको उसमें माधुर्य के लक्षण मिल गए। यही नहीं, निगुर्ण खोजने वालों को भी मीरां ने निराश नहीं किया। बारीकी से खोजबीन करने वालों ने उसमें योग की गूढ़ और रूढ़ शब्दावली भी ढूँढ निकाली। कविता के शास्त्र विश्वासी लोगों के अपने साँचों-खाँचों में भी मीरां की कविता की काटपीट ख़ूब हुई। मीरां की कविता ने किसी को निराश नहीं किया। जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन वैसी- सबको अपने विचारों और भावनाओं के अनुसार मीरां की कविता में कुछ न कुछ मिल गया। किसी ने इस तथ्य की ओर ध्यान नहीं दिया कि मीरां की भक्ति और कविता ली और दी गई नहीं, कमाई गई हैं। यह लोक के बीच, उसकी उठापटक और उजास में अर्जित की गई है, इसीलिए यह किसी परंपरा, संप्रदाय और शास्त्र के साँचे-खाँचे में नहीं है और एकदम अलग और नयी हैं।
मीरां की हाशिए की असाधारण स्त्री छवि गढने वाले विमर्शकारों की अपेक्षाएँ अलग थीं। उनकी कसौटी पर खरा उतरने के लिए ज़रूरी था कि मीरां वंचित-उत्पीडित, दीन-हीन और असहाय हो और साथ में उसका समाज ठहरा हुआ हो। उन्होंने मीरां की कविता से चुन-चुन कर ऐसे अंश निकाले, जो उनकी इन ज़रूरतों को पूरा करते हैं। उन्होंने इनके आधार पर मीरां को प्रताड़ित, हीन-दीन और असहाय स्त्री ठहरा दिया। उन्होंने खींच-खाँचकर मीरां की नाराज़गी और असंतोष को पितृसत्ता से उसकी असहमति बना दिया। मीरां को स्वेच्छाचार का साहस और जगह की उसके समाज ने दी। इसी समाज ने मीरां की स्मृतियों को सदियों तक सँजोए रखा, लेकिन कुछ अतिरिक्त उत्साही वामपंथियों और अधिकांश नए स्त्रीविमर्शकारों ने इस समाज को ठहरा हुआ और गत्यावरुद्ध मान लिया। मीरां एक सामंत की विधवा थी, उसकी हैसियत एक जागीरदार की थी और उसके पास आर्थिक स्वावलंबन के साधन थे। वह संपन्न थी और इतनी संपन्न थीं कि साधु-संतों को आतिथ्य सत्कार में मुहरे देती थीं। वल्लभ संप्रदाय के प्रामाणिक माने जाने वाले वार्ता ग्रंथों में इसके साक्ष्य हैं। मीरां पर आजीवन शोध करने वाले हरिनारायण पुरोहित के अनुसार उसने कभी भगवा नहीं पहने। उसके पितृपक्ष के एक वंशज और इतिहासकार गोपालसिंह मेड़तिया के अनुसार यह कहना ग़लत है कि मीरांबाई हाथ में वीणा लेकर जगह-जगह घूमती थी। उन्होंने एक जगह लिखा है कि “महाराणा संग्रामसिंह जी ने अपनी युवराज पुत्रवधू को पुर और माँडल के परगने हाथ खर्च के लिए प्रदान किए थे। इसके अतिरिक्त परम प्रतापी संग्रामसिंह जी की पुत्रवधू होने के नाते धन, रत्न भूषणादि उसके पास भारी मात्रा में रहे होंगे। उसी संचित द्रव्य से और उक्त परगनों की आय से भगवती मीरांदेवी दान-पुण्य साधु सेवा, अतिथि सत्कार, राजसेवक, दासदासियों का वेतन और तीर्थ यात्रा किया करती थी। जब कभी वह तीर्थ यात्रा पर जाती थी, हाथी-घोड़े, रथ आदि वाहन तथा अनेक राजसेवक, दास-दासियाँ उनके साथ चलते थे। मेड़ता नरेश की राजकुमारी और चित्तौड़ भूपाल की ज्येष्ठ पुत्रवधू के अनुरूप वह समस्त राजोचित वैभव रखती थी। यह दूसरी बात है कि उन्हे पूर्ण ज्ञान के साथ वैराग्य प्राप्त हुआ था और वह ईश्वर और जीव मात्र की एकता को अभेद दृष्टि से देखती थी। इसीलिए परोपकारादि कार्यों पर अन्य महारानियों की अपेक्षा अधिक दान-पुण्य करती थीं; साधु-महात्माओं से सत्योपदेश सुनती-सुनाती थी; प्रसिद्ध संत-महात्माओं से शास्त्रार्थ भी किया करती थी।” मीरां को कुछ हद तक जीवन की भी स्वतंत्रता थी। आवागमन की स्वतंत्रता और सुविधा के कारण ही वह पुष्कर, द्वारिका, वृंदावन आदि स्थानों पर गई। विडंबना यह है कि अपनी तयशुदा धारणाओं के प्रतिकूल होने के कारण इन तथ्यों को इन विमर्शकारों ने अनदेखा कर दिया।
मीरां के साथ अन्याय और उसके उत्पीड़न की प्रचारित कहानियों में भी सच्चाई कम है। मीरां का बाल्यकालीन और वैवाहिक जीवन सुखी था। अपनी कविता में मीरां ने सास और ननद की निंदा की है, लेकिन उसने अपने ससुर और पति की सराहना की है। यह सही है कि मीरां के साथ अन्याय हुआ और उसको यंत्रणाएँ भी दी गईं, लेकिन यह केवल उसके देवर रत्नसिंह (1528-1531 ई.) और विक्रमादित्य (1531-1536 ई.) के अल्पकालीन शासनकाल में हुआ। रत्नसिंह अपनी माता धनाबाई के साथ सत्ता हथियाने में षड्यंत्रकारी था, जबकि विक्रमादित्य पारंपरिक इतिहास रूपों और लोक में एक मूर्ख, छिछोर और घमंडी शासक के रूप में कुख्यात है। विक्रमादित्य को तत्कालीन जागीरदारों और लोक ने कोई समर्थन नहीं दिया। विक्रमादित्य के बाद ही मेवाड़ के राजवंश में मीरां के सम्मान और स्वीकृति का भाव आ गया था। 1535 ई. में गुजरात के बहादुरशाह ने मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया और यह इतना भीषण था कि चितौड़ किले में मौजूद सभी स्त्रियों को जल कर मरना पड़ा। यह माना गया कि मीरां को प्रताड़ित करने के कारण ही मेवाड़ पर यह विपदा आई इसलिए उदयसिंह ने द्वारिका ब्राह्मण भेजकर मीरां की मेवाड़ वापसी के प्रयत्न किए थे। यह सम्मान बाद में बढ़ता ही गया था। ऐसी जनश्रुति है कि सत्रहवीं सदी के पूर्वार्ध में सत्तारूढ़ महाराणा जगतसिंह को स्वप्न में भगवान जगन्नाथ ने आदेश दिया कि मुझे मीरां को दिए वचन के अनुसार मेवाड़ में आना है, इसलिए मेरा मंदिर बनवाओ और इसी आदेश के तहत महाराणा ने उदयपुर में राजमहल के ठीक बाहर भगवान जगन्नाथ का भव्य और विशालकाय जगदीश मंदिर बनवाया।
मीरां की कविता में जो सघन अवसाद और दुःख है उसका कारण पितृसत्तात्मक अन्याय और उत्पीड़न नहीं था। यह ख़ास प्रकार की घटना संकुल ऐतिहासिक परिस्थितियों के कारण था, जिनमें मीरां को एक के बाद एक अपने लगभग सभी परिजनों की मृत्य देखनी पड़ी और निराश्रित होकर निरंतर एक से दूसरी जगह भटकना पड़ा। 1516 ई. में उसका विवाह हुआ और कुछ समय बाद ही 1518 से 1523 ई. के बीच कभी उसके पति भोजराज का निधन हो गया। महाराणा सांगा के और बाबर के बीच 1527 ई. मे हुए खानवा के युद्ध मे उसके पिता रत्नसिंह और बड़े पिता रायमल काम आए। ससुर महाराणा सांगा भी 1528 ई. में नहीं रहे। सांगा की मृत्य के बाद जोधपुर के राठौडों का भानजा मीरां का देवर रत्नसिंह सत्तारूढ़ हुआ, लेकिन सांगा के विरुद्ध षड्यंत्रकारी होने के कारण मीरां से उसके संबंध तनावपूर्ण रहे होंगे। वह बूंदी के हाड़ा सूरजमल के हाथों मारा गया। इसके बाद सत्तारूढ़ विक्रमादित्य मूर्ख और घमंडी था। उसको मीरां की गतिविधियां और आचरण अच्छा नहीं लगा। उसने मीरां को यातनाएँ दीं और कई तरह से प्रताडित किया। दुःखी मीरां ने 1535 ई. के आसपास अपने बड़े पिता वीरमदेव के यहाँ पीहर मेड़ता में शरण ली। लेकिन यह आश्रय भी स्थायी नहीं रहा। जोधपुर के शासक मालदेव 1536 ई. में आक्रमण कर मेड़ता को उजाड़ दिया। वीरमदेव को कई वर्षों तक यहाँ-वहाँ भटकना पड़ा। मीरां टोडा तक वीरमदेव के साथ रही और बाद में वह पहले वृंदावन और फिर द्वारिका चली गई। 1546 ई. के आसपास यह प्रचारित हुआ कि वह द्वारिका में रणछोड़जी की प्रतिमा में समा गई है और इस आधार पर यही समय मीरां के निधन के समय के रूप में प्रसिद्ध वही हो गया।
लोकप्रिय माध्यम
बीसवीं सदी और उसके बाद नए माध्यमों- लोकप्रिय साहित्य, चित्रकथा, फ़िल्म और कैसेट्स-सीडीज़ का नज़रिया अपने अधिकांश मध्यवर्गीय उपभोक्ताओं की ज़रूरतों के अनुसार बना। आरंभिक पारंपरिक भारतीय मध्यवर्गीय उपभोक्ताओं का आत्मगौरव पुनरुत्थान की भावना में संतुष्ट अनुभव करता था, इसलिए इन माध्यमों ने मीरां की आदर्श भारतीय पत्नी छवि गढ़ने के तमाम उपक्रम किए। गीता प्रेस, गोरखपुर और अमर चित्रकथा की मीरां अपनी धार्मिक अस्मिता के प्रति सचेत पारंपरिक मध्यवर्गीय जनसाधारण की आकांक्षाओं के अनुसार आदर्श हिंदू पत्नी और संत-भक्त है। इधर के भूमंडलीकृत अर्थव्यवस्था में पले-बढ़े नयी पीढ़ी के मध्यवर्ग का नज़रिया कुछ हद तक बदल गया है। उसकी काम्य स्त्री छवि पारंपरिक मध्यवर्गीय भारतीय की आदर्श पत्नी स्त्री छवि से अलग रूमानी, विद्रोही और कुछ हद स्वतंत्र स्त्री की है। इन माध्यमों ने इसीलिए इन मध्यवर्गीय उपभोक्ताओं की ज़रूरतों के अनुसार धीरे-धीरे मीरां की प्रेम दीवानी और अंशतः परंपरा विरोधी छवि गढ डाली है। लोकप्रिय साहित्य के एक प्रकाशक डायमंड बुक्स द्वारा प्रकाशित प्रेमदीवानी मीरां की मीरां भूमंडलीकृत अर्थव्यवस्था में पले-बढ़े नयी पीढ़ी के मध्यवर्ग की काम्य स्त्री छवि के अनुसार रूमानी, स्वतंत्र और अंशतः परंपरा विरोधी है। गुलज़ार की फ़िल्म में भी मीरां असाधारण पवित्रात्मा भक्त, प्रेम दीवानी और अंशतः पंरपरा विरोधी स्त्री है। अधिकांश लोकप्रिय ऑडियो कैसेट्स-सीडीज़ में भी मीरां की ऐसी रचनाएँ संकलित की गई हैं, जो उसके भक्त और प्रेम दीवानी स्त्री रूप को ही पुष्ट करती है।
पश्चिमी विद्वता
मीरां कविता ऐसी है कि उपनिवेशकाल और उसके बाद यह निरंतर पश्चिमी विद्वानों की दिलचस्पी के केंद्र में रही है। बीसवीं सदी उत्तरार्ध में विश्व भर में स्त्री अस्मितायी चेतना के उभार के साथ मीरां को जानने-समझने आग्रह साहित्य, इतिहास, स्त्री अध्ययन आदि अनुशासनों में और बढ़ गया है। उपनिवेशकाल में जिन यूरोपीय विद्वानों का ध्यान मीरां की ओर गया, उनमें का राजपुताना के पोलिटिकल एजेंट लेफ्टिनेंट कर्नल जेम्स टॉड सर्वप्रमुख है। इतिहास और साहित्य में मीरां की रहस्यवादी और रूमानी संत-भक्त और रहस्यवादी कवयित्री छवि का बीजारोपण टॉड ने किया। उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्ध में टॉड ने अपने विख्यात इतिहास ग्रंथ एनल्स एंड एंक्टिविटीज़ ऑफ़ राजस्थान (1829 ई.) में और बाद में अपने यात्रा वृत्तांत ट्रेवल्स इन वेस्टर्न इंडिया (1839 ई.) में मीरां का उल्लेख एक रहस्यवादी संत-भक्त और रूमानी कवयित्री के रूप में किया। यह एक तरह से मीरां का कैननाइजेशन था। मीरां की यह छवि यथार्थपरक और इतिहाससम्मत नहीं थी। इसमें उसके जागतिक अस्तित्व के संघर्ष और अनुभव को अनदेखा किया गया था, लेकिन टॉड के प्रभावशाली व्यक्तित्व और वैदुष्य ने इसे मान्य बना दिया। निरंतर स्वेच्छाचार और अवज्ञा के कारण कुछ समय के लिए मीरां के सत्ता से संबंध कटु और तनावपूर्ण थे और इस कारण उसका जागतिक अनुभव बहुत कष्टमय और त्रासपूर्ण हो गया था, लेकिन अपने वैयक्तिक पूर्वाग्रहों के कारण टॉड को उसका यह रूप स्वीकार्य नहीं हुआ। उन्होंने अपने यूरोपीय संस्कार, ज्ञान और रुचि के अनुसार प्रेम, रोमांस और भक्ति के मेल से उसका नया स्त्री संत-भक्त और कवयित्री रूप गढ़ दिया। विख्यात जर्मन भारतविद् हरमन गोएट्जे (1898-1976 ई. ) ने इंडियन पी.ई.एन. की दिल्ली शाखा में 1956 ई. में मीरां पर एक बहुत महत्त्वपूर्ण शोधपरक व्याख्यान दिया, जो बाद में भारतीय विद्याभवन, मुम्बई से पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ। हरमन गोएट्ज मूलतः कला इतिहासकर और बड़ौदा राज्य पुरातत्त्व संग्राहलय का निदेशक थे और उन्होंने 19 वर्ष तक भारत में रहकर प्राचीन और मध्यकालीन इतिहास के अध्ययन किया। उनकी विशेष रुचि मुगलकालीन कला और इतिहास में थी। उन्होंने उपलब्ध ऐतिहासिक-पारिस्थितिक साक्ष्यों के आधार पर मीरां की पारंपरिक छवि से अलग एक सामंत-भक्त-मनुष्य छवि गढ़ी। गोएटजे का नज़रिया यूरोपीय आम विद्वानों से कुछ हद तक अलग था। उन्होंने मीरां की ख़ास प्रकार की सांस्कृतिक पारिस्थितिकी को महत्त्व दिया और इसके लिए वे मेवाड़-मारवाड़ के क्षेत्रीय इतिहास में दूर तक गए। उन्होंने मीरां की ख़ास भक्ति का भी भक्ति के शास्त्रीय और पांरपरिक रूपों में सरलीकरण नहीं किया। उन्होंने माना कि “धार्मिक अनुभव अनिर्वचनीय होता है, जो केवल उपमाओं, प्रतीकों, मिथकों और अनुष्ठानों के माध्यम से व्यक्त किया जा सकता हैं। भाषाओं में ही नही, हर देश और सभ्यता में, बल्कि एक ही धार्मिक व्यवस्था के भीतर और यह भिन्न होता है। मानवीय समझ के विभिन्न स्तरों के साथ, यह न केवल बुद्धि का मामला है, बल्कि हृदय का भी है।” ख़ास बात यह है कि गोएटजे यरोपीय इतिहासकारों की तरह जनश्रुतियों का सर्वथा ख़ारिज नहीं करते। वे इनका पारिस्थितिक और पुरालेखीय साक्ष्यों की समानांतरता में रखकर उपयोग करते हैं। रत्नसिंह और उसकी जोधपुर, मारवाड़ मूल की माता द्वारा राणा सांगा के उत्तराधिकार को हड़पने के लिए किए गए षड्यंत्र का युक्तिसंगत अनुमान गोएटजे ने ही किया। इसी तरह उन्होंने 1546 ई. के बाद की अकबर, तानसेन, बीरबल, तुलसीदास से मीरां की भेंट संबंधी जनश्रुतियों पर निर्भर जीवन यात्रा की युक्तिसंगत ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य के साथ पुनर्रचना भी की। उनकी इस पुनर्रचना में लोक धारणाओं और इतिहास की अद्भुत जुगलबंदी है। गोएट्जे के संस्कार उनके भारत प्रेम के बावजूद यूरोपीय थे और इतिहास का प्रशिक्षण भी कुछ हद वैसा ही था, इसलिए दरबारी और राज्याश्रयी इतिहासकारों के पक्षपातपूर्ण होने की धारणा उनमें बद्धमूल थी। अपनी स्थापनाओं में उन्होंने इनका उपयोग बहुत कम किया, इसलिए उनकी कुछ स्थापनाएँ मजबूत आधारवाली नहीं हैं।
आज़ादी की बाद, ख़ासतौर पर स्त्री अस्मितायी चेतना के उभार के बाद नैन्सी एम. मार्टिन, फ़्रांसिस टैफ्ट, स्ट्रेटन हौली आदि कई विद्वानों ने मीरां के जीवन और कविता पर विचार किया है। धर्म और उससे संबद्ध साहित्य की अध्येता अध्येता नेन्सी एम. मार्टिन ने बीसवीं सदी के अंतिम दशक में मीरां पर विचार शुरू किया और वे बाद में वे निरंतर उस पर लिखती रही हैं। उन्होने मीरां से संबंधित अकादमिक और अस्मितायी राजनीति, मीरां के शास्त्रों में उल्लेख और जीवन में रूपायन, मीरां की कविता, मीरां की अमरीका में लोकप्रियता आदि विषयों पर विचार किया है। मार्टिन का मानना है कि धार्मिक आख्यानों और जनश्रुतियों में “मीरां एक अनन्य भक्त की तरह उभरती है और समग्र समर्पण, निष्ठा और आस्था की प्रतीक बन जाती है।” मीरां के के संबंध में मार्टिन का निष्कर्ष यह भी है कि मीरां एक विशद, व्यापक संत समाज की प्रिय सदस्या है, फिर भी वे किसी भी विशिष्ट संप्रदाय से संबद्ध नहीं है एवं उनकी परंपरा में भी इस प्रकार में भी कोई औपचारिक संबद्धता परिलक्षित नहीं होती।” मार्टिन इसके कारणों की तह में जाकर कहती हैं कि “मीरां की मानवीय अथवा संस्थागत अंतरमध्यस्थों में कोई रुचि नही थी। उन्हें तो अपने देवी पति एवं स्वामी के साथ मिलन तथा प्रत्यक्ष अनुभव की इच्छा थी।” नेन्सी मार्टिन का ज़ोर मुख्यतया मीरां के रूमानी, रहस्यवादी और प्रेमी संत-भक्त पर ज़्यादा है। वे उसके मानवीय अनुभव और संघर्ष पर नहीं आतीं। स्त्री अस्मितायी आग्रह के चलते मीरां के स्त्री होने के कारण ‘लिंग भेद और सामजिक अपेक्षाओं की समस्याओं से संघर्ष’ को तो वे अपनी निगाह में लेती हैं, लेकिन यह भी कमोबेश उनके अनुसार मीरां के भक्त रूप का ही विस्तार है। नेन्सी मार्टिन का व्यवहार मीरां के साथ कमोबेश कुछ हद तक अतिमानवीय संत-भक्त स्त्री की तरह का है।
इतिहासकार फ़्रांसिस टैफ्ट ने भी मीरां के जीवन और कविता को समझने के लिए इतिहास के पश्चिमी मानकों का इस्तेमाल किया और जब ये इतिहास के पश्चिमी मानकों पर खरे नहीं उतरे, तो उन्होंने मींरा के जीवन और कविता से संबंधित अधिकांश स्रोत-सामग्री को कुछ हद तक संदिग्ध घोषित कर दिया। उन्होंने 2002 में एक शोध पत्र ‘दि इल्युजिव हिस्टोरिकल मीरां-ए नोट’ लिखा, जिसकी पर्याप्त चर्चा हुई। उन्होंने अपने शोध लेख में राजस्थान के आरंभिक आधुनिक इतिहासकारों- श्यामलदास, मुंशी देवीप्रसाद, ठाकुर चतुरसिंह और गौरीशंकर ओझा की मीरां के जीवन और कविता संबंधी धारणाओं में उनके द्वारा उपयोग में ली गई तीन तरह की स्रोत सामगी (1) राजपूत वंशावलियाँ, (2) चारण-भाटों की धारणाएँ और (3) राजस्थान की भक्ति संबंधी परंपराओं के आधार पर विचार किया। अंततः वे इस निष्कर्ष पर पहुँचीं कि- (1) 19वीं सदी के अंतिम दो दशकों में ‘यूरोपीय शैली’ में इतिहास लिखनेवाले (मुंशी देवीप्रसाद, श्यामलदास, गौरीशंकर ओझा और ठाकुर चतुरसिंह) के काम से मीरा के जीवन की एक बुनियादी रूपरेखा बन जाती है, (2) इस बुनियादी रूपरेखा में बाद में कई चीज़ें जोड़ दी गईं, जो ‘इतिहास’ की श्रेणी में नहीं आतीं, (3) कुछ क्षेत्र ऐसे हैं, जिनमें और अनुसंधान करने से मीरां की अधिक स्पष्ट ऐतिहासिक पहचान उभर सकती है और (4) मीरां का ऐतिहासिक और संत रूप, दोनों एक दूसरे से बहुत अलग हैं और दूसरा संत रूप बाद में गढ़ा गया है। विडंबना यह है कि फ़्रांसिस टैफ्ट मीरां को ‘ऐतिहासिक’ भी मानती है और इस संबंध में उपलब्ध साक्ष्यों को “आधुनिक इतिहास सम्मत दृष्टि” से अपर्याप्त भी ठहराती है। वे उन विद्वानों को जो मीरां की ऐतिहासिकता को लेकर आश्वस्त नहीं है, कुछ हद तक ग़लत मानती हैं। आरंभ में मीरां की ऐतिहासिकता के संबंध में कुछ हद आश्वस्त भी लगनेवाली टैफ्ट शोधपत्र के अंत तक पहुँचते-पहुँचते मीरां से संबंधित अधिकांश उपलब्ध साक्ष्यों को संदेहास्पद ठहरा देती हैं। उनके शोध लेख के अंतिम निष्कर्ष इस प्रकार हैं “पहला, बावज़ूद अनेक अनिश्चितताओं के, आरम्भिक इतिहासकारों के काम से मीराबाई के जीवन की एक प्राथमिक रूपरेखा उभर जाती है। तथापि, विशेष रूप से मुंशी देवीप्रसाद के काम में स्पष्टत: ऐसी परम्पराएं और व्याख्याएँ सम्मिलित हैं, जिनकी पुष्टि वर्तमान ऐतिहासिक ज्ञान से नहीं की जा सकती है। दूसरा, निश्चय ही यह मुमकिन है कि हम कुछ ऐतिहासिक उलझनों को सुलझा सकें; ख़ास तौर पर हम श्यामलदास के स्रोतों के बारे में और अधिक जान सकते हैं। तथापि, एक ऐतिहासिक अर्थ में, जो हम पहले से जानते हैं, उस जानकारी में और महत्त्वपूर्ण वृद्धि करने के बारे में निहित महत्त्वपूर्ण अवरोधों के बारे में हमें यथार्थपरक होना चाहिए। ऐतिहासिक उद्देश्यों से भक्ति और राजस्थान की परम्पराएँ बहुत हद तक अविश्वसनीय हैं और यह चाहे जितना आकर्षक हो, हमें मीरा की पदावली के बारे में भी सावधान रहना होगा, जो हमें अपेक्षाकृत हालिया रूपों में ही प्राप्त हुई है। इसलिए अंत में जहाँ रूपरेखा तो लगभग स्पष्ट ही है, इसके बावज़ूद काफ़ी कुछ ऐसा है जो अस्पष्ट रह जाता है। ऐतिहासिक मीराबाई के बारे में हम जितना जानते हैं या जितना जानने की सम्भावना करते हैं और स्वयं मीराबाई के विवरण जिनमें हालांकि अन्य एजेण्डाओं पर आधारित ऐतिहासिक सामग्री भी सम्मिलित है, इन दोनों के बीच का भेद बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाता है। इन दोनों का पार्थक्य ऐतिहासिक परियोजना के लिए आवश्यक है।”
ख़ास बात यह है टैफ्ट ने मीरां की ऐतिहासिकता पर विचार एक यूरोपीयन ‘इतिहासकार’ (हिस्टोरियन) की तरह किया। उनकी दुविधा यह है वे मीरां के ऐतिहासिक अस्तित्व को पूरी तरह नकारती भी नहीं हैं, लेकिन उनके ‘आधुनिक’ इतिहासकार के संस्कार और प्रशिक्षण उनको मीरां के संबंध में उपलब्ध स्रोत सामग्री को ऐतिहासिक मानने से रोक देते हैं। उन्होंने साफ़ लिखा कि “गत दशकों में मीरां पर जिन विद्वानों ने लिखा, उनमें से लगभग सभी धर्म या साहित्य या लोक सहित्य के विशेषज्ञ थे। मुझे यह स्वीकार करने की अनुमति दें कि मेरी अपनी रुचि राजस्थान के इतिहास में है- मैं ऐतिहासिक मीरां और उसके दूसरी तरफ़ विकसित पारंपरिक असंख्य और/या लोकप्रिय मीरांओं में अंतर करने आग्रह करती हूँ। मैं सोलहवीं सदी के पूर्वार्ध में वास्तव में जीवन व्यतीत करनेवाली स्त्री से संबंधित आधारभूत स्रोतों और दूसरी उपलब्ध सामग्री के मूल्यांकन पर ज़ोर देती हूँ।” इस तरह वे आधुनिक और उससे भी अधिक एक ‘पश्चिमी ईसाई इतिहासकार’ की तरह विचार करते हुए मीरां की कविता और जीवन से संबंधी उन सभी उपलब्ध स्रोतों को कुछ हद तक संदिग्ध ठहरा देती हैं, जो पारंपरिक इतिहास, धर्माख्यान और लोक स्मृति में मौजूद हैं। उन्होंने ज़ोर देकर कहा है कि मीरां के जीवन और कविता के संबंध में मुंशी देवीप्रसाद (आधुनिक इतिहासकार) के काम में ऐसी “परम्पराएँ और व्याख्याएँ सम्मिलित हैं, जिनकी पुष्टि वर्तमान ऐतिहासिक ज्ञान से नहीं की जा सकती है” और भक्ति और राजस्थान की मीरां संबंधी परंपराएँ “बहुत हद तक अविश्वसनीय हैं।” मीरां की प्रचलित और उपलब्ध कविता की प्रामाणिकता के संबंध में भी वे आश्वस्त नहीं हैं और इस संबंध में “सावधान रहने” का आग्रह करती हैं। वे लिखती हैं कि “अनिवार्य रूप से, उनके भजनों की बोली, प्रस्तुति और शायद वैचारिक कारणों से कई रूप उभरे।” इस तमाम कवायद का रोचक पक्ष यह है कि वे स्वयं यह मानती हैं कि ‘सोलहवीं सदी के पूर्वार्ध में मीरां नाम की स्त्री ने जीवन व्यतीत किया’, लेकिन वे इस संबंध में उपलब्ध स्रोतों की ‘ऐतिहासिकता’ के संबंध में आश्वस्त ही नहीं हैं।
मीरां के जीवन और कविता को इस तरह इतिहास के पश्चिमी मानकों से समझना-परखना ग़लत है। पश्चिमी इतिहासकारों को अपने ग्रीक और रोमन पूर्वजों की स्मृति के रख-रखाव की पद्धति और ढंग पर बहुत गर्व है। मार्क ब्लाख़ ने तो लिखा है कि “औरों से भिन्न हमारी सभ्यता अपनी स्मृतियों के प्रति बेहद सतर्क रही है। हर चीज़ ने उसका झुकाव इसी दिशा में किया: ईसाई और शास्त्रीय विरासत दोनों ने। हमारे शुरुआती उस्ताद, ग्रीक-रोमन लोग, इतिहास लिखने वाले लोग थे।”8 मार्क ब्लाख़ ने आगे और साफ़ करके लिखा कि “ईसाइयत तो इतिहासकारों का धर्म है।” विडंबना यह है कि इतिहास की यही ईसाई पद्धति अब सार्वभौमिक आदर्श और मानक बन गई है। सभी देश-समाजों का इतिहास एक जैसा हो, यह आग्रह सिरे से ही ग़लत है। रवींद्रनाथ ठाकुर ने अपने एक निबंध भारतवर्षेर इतिहास में गत सदी आरंभ में ही सचेत कर दिया था कि “दरअसल इस अंधविश्वास का परित्याग कर दिया जाना चाहिए कि सभी देशों के इतिहास को एक समान होना चाहिए।” स्मृति के रख-रखाव का हर समाज का अपना ढंग है। यह सही है कि बहुत प्राचीनकाल से ही अपनी ख़ास सामाजिक-सांस्कृतिक ज़रूरत के तहत बनी-बढ़ी स्मृति के संरक्षण की हमारी अपनी परंपरा भी है। चक्रीय कालबोध और सनातनता की चेतना से इसका विकास अलग और ख़ास ढंग से हुआ, लेकिन इसमें देशकाल के संदर्भ भी निरंतर और सघन है और इसकी परंपरा में इसके पर्याप्त साक्ष्य भी हैं। मीरां के जीवन और कविता को भी इतिहास की पश्चिमी ज्ञान मीमाँसा से अलग करके ही अच्छी तरह समझा जा सकता है। उसके जागतिक स्त्री मनुष्य की यात्रा के मोड़-पड़ावों की पहचान के लिए ज़रूरी है कि उन पारंपरिक देशज इतिहास रूपों, धार्मिक आख्यानों और जनश्रुतियों को सहानुभूतिपूर्वक पढा-समझा जाए, जिनकी पश्चिमी विद्वानों ने सजग अनदेखी की है। ख़ास तौर पर इस काम में उन जनश्रुतियों को भी निगाह में लिया जाना चाहिए, जो हमारे समाज के सांस्कृतिक व्यवहार और भाषा का बहुत ज़रूरी हिस्सा हैं। पश्चिमी विद्वान् लगभग दो शताब्दियों से अपने जैसी फ़सल का आग्रह हमारे खेतों में कर रहे हैं और ख़ास बात यह है कि उसके अभाव में वे इसके फसल होने पर संदेह भी कर रहे हैं। उनको अभी तक यह समझ में नहीं आया कि “सभी खेतों में एक सी फसलें नहीं होती।” मीरां का जीवन और कविता एक ख़ास प्रकार के समाज और संस्कृति की पैदाइश है। यह समाज-संस्कृति इतनी अलग और ख़ास हैं कि इसको समझने के लिए इसकी अपनी ज़रूरत के तहत बने इतिहास रूपों, धार्मिक आख्यानों, जनश्रुतियों आदि की समझ और इन पर निर्भरता बहुत ज़रूरी है। मीरां की मौजूदगी पारंपरिक इतिहास रूपों, धार्मिक आख्यानों और लोक स्मृति में सदियों से निरंतर और सघन है। उसकी कविता सदियों से श्रुत से लिखित और लिखित से श्रुत में आ-जा रही है और यह स्मृति के संरक्षण और रख-रखाव का ख़ास भारतीय ढंग है। सदियों से हमारे समाज ने जिस मीरां को अपने सिर पर उठा रखा, जिसकी स्मृति कई रूपों में निरंतर और जीवंत है। रवींद्रनाथ ठाकुर कहा था कि “धान के खेत में बैंगन नहीं होते।” उनकी बैंगन की तलाश पूरी नहीं होने का यह मतलब बिल्कुल नहीं है कि खेत में धान ही नहीं हुआ। मीरां हुई और यह हमारे अपने ढंग से, कई तरह से सिद्ध और प्रमाणित है।
भारतीय मध्यकालीन भक्ति साहित्य के अमरीकी विद्वान् के रूप में प्रसिद्ध जॉन स्ट्रेटन हौली ने कबीर और सूरदास के साथ मीरां की कविता के उपलब्ध पाठों की प्रामाणिकता और उसमें विरह की मौजूदगी पर विचार किया है। भारतीय साहित्य की कई ख़ूबसूरतियों में से एक उसमें प्रेम और विरह की निरंतर, सघन और मुखर मौजूदगी है। यह स्वर कहीं लौकिक, कहीं अलौकिक और कहीं लौकिक से अलौकिक होता हुआ है। भारतीय सौंदर्यशास्त्र भी साहित्य में इसकी व्यापकता को ध्यान में रखकर इसकी व्याख्या, विवेचन और वर्गीकरण करता है। इस सदी की शुरुआत में हौली की पुस्तक थ्री भक्ति वोयसेज़ में आयी और इसका हिंदी अनुवाद भक्ति के तीन स्वर नाम से 2019 ई. में प्रकाशित हुआ। हौली की ख्याति पाठानुसंधान और पाठनिर्भर आलोचना के लिए है। पुस्तक में मीरां से संबंधित दो आलेख- ‘पांडुलिपियों मे मीरां’ और ‘लालासा की काया’ संकलित हैं। आलेख ‘लालसा की काया’ में हौली ने मीरां के केवल एक पद पर विचार किया है। मीरां के केवल पद पर इसलिए क्योंकि हौली के अनुसार कर्तारपुर गुरुग्रंथ साहिब में संकलित यही एक पद सबसे पुराना और ‘मीरां का हस्ताक्षरित’ (‘और हस्ताक्षर भी मौखिक रूप में दर्ज़ है’) है, इसलिए प्रामाणिक है। ‘लालसा की काया’ मुख्यतः मीरां की कविता पर एकाग्र है, लेकिन अपनी धारणाओं की पुष्टि के लिए हौली ने इसमें दो पद सूरदास के भी उद्धृत किए हैं। आलेख में हौली जिन निष्कर्षों पर पहुँचते हैं, वे और सामान्य भारतीय, जिसकी स्मृति और संस्कार में प्रेम और विरह की लौकिक-अलौकिक और इनमें परस्पर आवाजाही की कविता की सदियों से मौजूदगी है, उसके लिए कुछ हद तक विस्मयकारी और चौंकानेवाले भी हैं। हौली द्वारा अपनी स्थापनाओं की पुष्टि के लिए कर्तारपुर गुरुग्रंथ साहिब का उद्धृत यह पद इस तरह है-
मनु हमारो बांधिउ माई कवल नैन आपने गुन
तीखण तीर बेधि सरीर दुरि गयो री माई
लागिउ तब जानिउ नही अब न न सहिउ जाई री माई
तंत मंत अऊखद करऊ तऊ पीर न जाई
है कौऊ ऊपकार करै कठिन दरदु माई
निकट हऊ तुम दुरि नहि बेगि मिलहु आई
मीराँ गिरधर सुआमी देआल तन की तपन बुझाई री माई
कवल नैन आपने गुन अपने गुन बांधिऊ माई।
इस पद के आधार पर हौली यह सवाल करते हैं कि “जिस साहित्य में स्त्री शरीर की सामान्य अवस्था को एक ऐसा रोग माना जाता है, जो पुरुष की अनुपस्थिति के कारण पैदा होता है, उस साहित्य को किस तरह लिया जाए?” कुल मिलाकर हौली का इस सवाल का जवाब कुछ इधर-उधर के साथ यह है कि मीरां की कविता में पुरुष की अनुपस्थिति से उत्पन्न जो ‘विरह’ है, वह भारतीय समाज की लैंगिक वास्तविकता, मतलब पुरुष वर्चस्व और उसकी प्रमुखता का नतीजा है। उनके अनुसार यह प्रेम और विरह सूर जैसे पुरुष कवियों के यहाँ भी स्त्री की पुरुष के लिए लालसा की तरह ही है और इसलिए यह मीरां या कि स्त्री की पुरुष के लिए लालसा से अलग नहीं है।7 हौली आलेख के अंत में कुछ हद बहुत अटपटे और विचित्र निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि “विरह एक खेल है- स्त्री के वस्त्रों और उसकी भावनाओं से खेलने का खेल। यह देवता बनने का खेल है, जो खेल देव (या देवी) मनुष्य के साथ खेलते हैं। यह खेल लालसा का एक लिंग निर्धारित करता है।”
भारतीय समाज में स्त्री-पुरुष की विषमता की धारणा को स्वयंसिद्ध मानकर इस आधार पर इसके साहित्य का मूल्यांकन करने का शग़ल इधर पश्चिमी विद्वानों में बढ़ा है, लेकिन न तो यह भारतीय समाज के स्वभाव और चरित्र के अनुसार है, न ही यह युक्तिसंगत है। भारतीय परंपरा में प्रेम और विरह ‘व्याधि’ नहीं है, यह भक्ति के प्रपत्ति रूप का विस्तार है, यह भक्ति साहित्य में सदियों से है और तर्क और युक्ति से इसकी कोई समझ बनाना बहुत मुश्किल काम है। रवींद्रनाथ ठाकुर ने एक जगह लिखा है कि “प्रेम और स्नेह का रहस्य अति प्राचीन, दुर्गम है, वह अपनी सार्थकता के लिए तर्क निर्भर नहीं होता।” प्रेम पर निर्भर भक्ति के भारतीय परंपरा में कई रूप हैं और इनके संबंध में कोई सार्वदेशिक सरलीकरण इसकी विविधता की अनदेखी करना है। भक्ति साहित्य के विद्वान् ए के रामानुजन ने यह स्वीकार करते हुए लिखा है कि "भक्ति कई प्रकार की होती है, यद्यपि हम इसे एकवचन में कहते हैं। विविधता अपार है और हमें इसकी पहचान करनी चाहिए। भक्ति शिव, विष्णु या देवी पर एकाग्र है। पुरुषों और महिलाओं द्वारा भक्ति, बंगाल में भक्ति और कर्नाटक में भक्ति, प्रारंभिक भक्ति और बाद में भक्ति- ये सभी एक दूसरे से अलग हैं। हमें इन विभिन्न रूपों के नए अध्ययन की ज़रूरत है।” महत्त्वपूर्ण यह है कि धार्मिक या गैर धार्मिक, दोनों अर्थों में, प्रिय की अनुपस्थिति इस परंपरा में स्त्री-पुरुष, दोनों को विचलित करती है। ख़ास बात यह भी है कि पुरुष का विचलन स्त्री से अलग अपने ढंग का है और परंपरा में इसके कई उदाहरण भी हैं। कृष्ण भक्ति साहित्य में लालसा के स्त्री रूप में होने का कारण भी प्रपत्ति में ही है। इसका संबंध भारतीय समाज की कथित स्त्री-पुरुष असमानता से नहीं है।
भारतीय समाज में स्त्री-पुरुष विषमता को पश्चिम ने स्वयंसिद्ध मान लिया है, लेकिन यह पूरी तरह सही नहीं है। ख़ासतौर पर मीरां के पंद्रहवी-सोलहवीं सदी का समाज में स्त्रियों की हालत और हैसियत प्रचारित से अलग है। भक्ति में प्रेम और विरह के संबंध में हौली ने जो धारणा बनायी है वो बहुत हद तक भारतीय समाज में स्त्री-पुरुष विषमता संबंधी ढाँचागत असंतुलन पर निर्भर है, लेकिन असंतुलन की यह धारणा संपूर्ण भारतीय समाज का सच नहीं है। भारतीय समाज में स्त्री-पुरुष की हालत और हैसियत लेकर भी कोई सरलीकृत और एकरूप निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है। विरह ‘पुरुष का खेल’ है और यह लालसा का लिंग निर्धारित करता है, यह पूरे भारतीय समाज का सच नहीं है। यह मानना सदियों के विस्तार और निरंतरता में ऐतिहासिक ज़रूरतों से विकसित भक्ति के एक ख़ास ढंग़ की अनदेखी करना है। हौली मीरां सहित सभी संत-भक्तों की कविता में वही देखते हैं, जो वे आग्रहपूर्वक देखना चाहते हैं और इस तरह उनसे बहुत कुछ ऐसा है, जो उनसे अनदेखा रह जाता है।
भक्ति का एक विकास दीर्घकालीन और जटिल प्रक्रिया में हुआ और उसका स्वरूप चरित्र भी इसीलिए बहुत विस्तृत, विविध और जटिल है। ये रूप एक दूसरे से अलग भी हैं। ए के रामानुजन यह मुश्किल समझते हैं। उन्होंने भक्ति और देश भाषाओं के संबंध पर लिखते हुए इस मुश्किल का ज़िक्र किया है। वे लिखते हैं कि “मैं इन आंदोलनों के अन्य महत्त्वपूर्ण पहलुओं की तुलना में कविता के बारे में कुछ अधिक जानता हूँ। पाठक अपने-अपने क्षेत्रों और भाषाओं से उदाहरण और प्रति-उदाहरण प्रदान कर सकते हैं।” भक्ति के प्रेम और विरह को ‘पुरुष के खेल’ में सीमित करना अपनी सुविधा और तर्क अनुसार इनका सरलीकरण है। भक्ति का संबंध भारतीय चित्त और और आत्मा से है। रवींद्रनाथ ठाकुर की यह धारणा सही है कि “शरीर के अंदर जीवन की तरह यह आत्मा एक सीधी अवधारणात्मक वास्तविकता है। और जीवन की तरह, केवल तार्किक परिभाषाओं के माध्यम से इसे समझना बेहद मुश्किल है।” स्पष्ट है कि मीरां का विरह कोई स्त्री व्याधि नहीं है। यह भक्ति के प्रपत्ति रूप का विस्तार है, जिसमें प्रिय की अनुपस्थिति भक्त को विचलित करती है। प्रिय के प्रति लालसा का स्त्री लैंगिक रूप कई पुरुष भक्तों के यहाँ भी है और यह बहुत स्वाभाविक है। भक्त स्त्री लैंगिक लालसा का यह रूप इसलिए इस्तेमाल करते हैं क्योंकि स्त्री विरह का संवेग स्वाभाविक रूप से सघन और तीव्र होता है। भारतीय साहित्य में विरह केवल स्त्री लैंगिक नहीं है- इसमें पुरुष विरह भी है और इसकी निरंतर परंपरा है। भारतीय साहित्य और ख़ासतौर पर उसमें भक्ति साहित्य में विरह की इस सघन और निरतर मौजूदगी का कारण भारतीय समाज की कथित स्त्री-पुरुष विषमता नहीं है। भारतीय समाज में स्त्री-पुरुष की हालत हैसियत का सरलीकरण नहीं किया जा सकता। यहाँ इस संबंध में पर्याप्त वैविध्य है और क्षेत्रीय सांस्कृतिक इकाइयों के अनुसार यह बदल भी जाता है। मीरां का समाज इस मामले में पिछड़ा नहीं है। यहाँ कुछ हद तक लैंगिक भेदभाव है, जो अकसर यूरोप सहित सभी समाजों में होता है, लेकिन यहाँ स्त्रियों के स्वावलंबन, सुरक्षा और संरक्षण की चिंताएँ भी हैं। मीरां की कविता को केवल उसके एक पद के आधार पर विरह के पुरुष के खेल तक सीमित करना युक्तिसंगत नहीं है। उसकी कविता के सरोकारों का दायरा बहुत बड़ा है- उसमें कथित ईश्वरीय व्यवस्था का विरोध, निजी राग-द्वेष, मूर्त जीवन-जगत् का आग्रह आदि भी हैं। किसी समाज की सांस्कृतिक बुनावट में कई चीज़ें आती-जाती रहती है, लेकिन कुछ ऐसा भी होता है, जो उसमें हमेशा रहता है और यह बदल-बदलकर रहता है। यह रहना-बदलना इतना अदृश्य और अनायास होता है, उसकी बहुत मुश्किल होती है। विरह लौकिक हो, अलौकिक हो या फिर लौकिक से अलौकिक हो, यह भारतीय सांस्कृतिक व्यवहार और बुनावट में सदियों से है और रूप बदल-बदलकर है। इसको किसी समय विशेष के प्रचलित विश्वास या विचार के तार्किक सरलीकरण में समझना बहुत मुश्किल काम है। “विरह एक खेल है। यह पुरुष का खेल है– स्त्री के वस्त्रों और भावनाओं से खलने का खेल”- हौली का यह निष्कर्ष भी एक ख़ास प्रकार के विचार में ‘विरह’ के तार्किक सरलीकरण से ज़्यादा कुछ नहीं
मीरां के जीवन और कविता के संबंध में हमारे समय और समाज में कई निर्मितियाँ चलन में हैं। मीरां के अपने जीवनकाल से ही इनका बनना शुरु हुआ, जो अभी तक जारी है। मीरां की कविता की एक पंक्ति है- कोई निंदौ कोई बिंदौ, मैं तो चलूंगी चाल अपूठी। मतलब यह कि कोई निंदा करे या सराहना, मैं ‘अपूठी’ चलूंगी। ‘अपूठी’ का मतलब है उल्टा या विमुख। अपने इस निश्चय के कारण मीरां का जीवन और कविता रूढ़ि से अलग और रूपक से बाहर है। मीरां के स्वभाव के गठन में स्वतंत्रता और बहुवचन बद्धमूल है, इसलिए उसका जीवन कविता भी एकरूप निर्मिति में नहीं है। देशज भक्ति साहित्यिक विमर्श और जनश्रुतियों में उसके जीवन के मोड़-पड़ावों संबंध में कई संकेत हैं। यह ज़रूरी है कि हम औपनिवेशिक और नयी पश्चिमी ज्ञान मीमांसा की बनायी गयी अंतर्बाधाओं से बाहर निकलकर सहानुभूतिपूर्वक इनको पढ़ें-समझें। कुछ मायनों में मीरां की कविता ही ऐसी है कि यह दायरों से बाहर आकर अपना पता-ठिकाना ख़ुद ही बता देती है, लेकिन यह तब संभव है जब हम अपने साँचों-खाँचों को अलग रखकर उसके पास जाएँ।
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