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परंपरा की जगह कभी-कभी खूँटे ले लेते हैं

Writer's picture: Madhav HadaMadhav Hada

माधव हाड़ा  से पीयूष पुष्पम् का संवाद

पाठ। सं. देवांशु। जुलाई-सितंबर, 2024


प्रश्न: आपने शुरुआत तो आधुनिक कविता की आलोचन से की थी। अब आपने अपने को प्राचीन


साहित्य पर एकाग्र कर लिया है। ऐसा क्यों हुआ?

उत्तर: हिंदी में जैसा चलन है सभी शुरुआत आधुनिक से ही करते हैं, मैंने भी वही किया, लेकिन बाद में महसूस होने लगा कि हमें अपने अतीत और विरासत को पहले समझना चाहिए। हिंदी भारतीय मध्यवर्गीय जनसाधारण की ख़ास बात यह है कि अतीत को लेकर उसमें गर्व का भाव तो बहुत है, गाहे-बगाहे वह इसका आग्रह भी बहुत उग्र प्रतिबद्धता के साथ करता है, लेकिन इसकी सार-सँभाल और पहचान की कोई सजगता उसमें नहीं है।वह अपने अतीत को अच्छी और पूरी तरह जानता ही नहीं है। स्वस्थ समाज की स्मृति हमेशा बहुत सघन और मुखर होती है। महात्मा गांधी, रबींद्रनाथ ठाकुर आदि इस बात को जानते थे, इसलिए उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन की एक प्रवृत्ति के रूप भारतीय साहित्य और ज्ञान के पुनरुत्थान की मुहिम शुरू की। उनकी इस पहल पर देशज सरोकारोंवाले क्षितिमोहन सेन, विधुशेखर शास्त्री, मुनि जिनविजय, सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या, मोतीचंद, डी.डी. कोसांबी, के एम मुंशी, हजारीप्रसाद द्विवेदी, राहुल सांकृत्यान, काशीप्रसाद जायसवाल, गौरीशंकर ओझा आदि कई विद्वान् सक्रिय हुए। शांति निकेतन, गुजरात विद्यापीठ, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, भारतीय विद्या भवन, नागरी प्रचारिणी सभा, साहित्य संस्थान, उदयपुर जैसी कई संस्थाएं इसी मुहिम के तहत अस्तित्व में आयीं। विडंबना यह है कि आज़ादी मिलते ही इस मुहिम ने भी दम तोड़ दिया। हड़बड़ी और जल्दबाजी में ‘आधुनिक’ होने वाले विद्वानों ने भारतीय ज्ञान के पुनरुत्थान में लगे इन विद्वानों को विस्थापित कर दिया और इस निमित्त बनीं संस्थाएँ धीरे-धीरे दम तोड़ गईं या उनकी प्राथमिकताएँ बदल गयीं। विडंबना यह अधिकांश हिंदी शोध कार्य वर्तमान और कभी-कभी तो तत्काल पर एकाग्र हैं। यह भी आज़ादी के बाद आए अधिकांश हिंदी साहित्य की जड़ें यूरोपीय कला और साहित्य आंदोलनों में थीं। प्राचीन भारतीय साहित्य की खोज और पहचान का अभी बहुत काम शेष है और इसमें नये लोगों की प्रवृत्ति बहुत ज़रूरी है।

प्रश्न : प्राचीन का बहुत अधिक आग्रह क्या पुनरुत्थानवादी या संरक्षणवादी नज़रिया नहीं है।

उत्तर: कुछ लोग ऐसा मानते हैं, पर इस तरह सोचना सही नहीं है। हमारे वर्तमान के होने में हमारे अतीत की निर्णायक भूमिका है, जबकि हम अपने अतीत को अच्छी तरह जानते नहीं हैं। हिंदी भाषा और साहित्य की पहचान और गठन का आरंभिक काम उपनिवेशकाल में हुआ। इस कार्य में यूरोप के अलग-अलग देशों के गिलक्रिस्ट, थामस कोलबुक, कैप्टन रोबक, गार्सां द तासी, मोनियर विलियम्स, जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन, एल.पी. तेस्सीतोरी, जेम्स टॉड आदि कई विद्वान सम्मिलित थे। पहचान और गठन के इस काम से हिंदी भाषा के अध्ययन-अध्यापन के साथ उसमें साहित्य रचना, शोध और संग्रह की शुरुआत हुई। यूरोपीय विद्वानों का यह योगदान महत्त्वपूर्ण था, लेकिन एक तो इसके पीछे उनके औपनिवेशिक स्वार्थ थे और दूसरे, उन्होंने जिस यूरोपीय अभ्यास और संस्कार के साथ यह काम किया, उससे हिंदी भाषा और साहित्य की पहचान में कुछ बुनियादी ग़लतियाँ रह गईं। विडंबना यह है कि हमने यूरोपीय ज्ञान मीमांसा की तय की गई इन पहचानों में कोई रद्दोबदल ही नहीं किया। आधुनिक होने की हड़बडी और जल्दबाज़ीमें  हमने परंपरा के आग्रह और विरासत की पहचान के काम को दकियानूसी मान लिया।

प्रश्न: हिंदी भाषा और साहित्य के गठन और इतिहास में आपको क्या ग़लत लगता है।

उत्तर: एक नहीं, कई गड़बड़ें हैं। इतिहास का काल विभाजन और प्रवृत्यात्मक वर्गीकरण पूरी तरह दोषपूर्ण है। इतिहास में लोकप्रिय आधुनिक, मध्यकालीन और प्राचीन जैसे पदों को को नये सिरे समझने की ज़रूरत है। हमारे यहाँ कई बार जिसे हम मध्यकाल कहते वो आधुनिक से अधिक आधुनिक है। फिर ये पद औपनिवेशिक स्वार्थ के तहत अस्तित्व में आए और विडंबना यह है कि हम आज भी इनको ढो रहे हैं। हमारे भक्ति आंदोलन में सगुण-निर्गुण जैसा अलग-अलग कुछ भी नहीं है, मीरां, सूर, कबीर आदि सगुण भी हैं और निर्गुण भी, लेकिन चल रहा है। कुछ विद्वानों को छोड़ दें, तो इस पर किसी ने पुनर्विचार नहीं किया। अभी कुछ समय पहले हिंदी में जादुई यथार्थवाद की शोशेबाजी शुरू हुई थी। हमारी तो पूरी आख्यान परंपरा ही जादुई यथार्थवाद से भरपूर है। हमने अभी उसको इस निगाह से देखा-समझा ही नहीं है। जैन साहित्य की समृद्ध परंपरा को हमने सांप्रदायिक मानकर हिंदी साहित्य की परंपरा से काट दिया। इसको हिंदी साहित्य के इतिहास के ज़रूरी अंग की तरह देखा-समझा जाना चाहिए। सूर, कबीर, तुलसी और कभी-कभी मीरां, यही हमारे लिए भक्ति आंदोलन है, जब कि भक्ति आंदोलन लगभग दस शताब्दियों में फैला हुआ देशव्यापी आंदोलन है, जिसके कई क्षेत्रीय रूप हैं, जिनको नये सिरे से समझने की ज़रूरत है। उत्तर भारतीय भक्ति आंदोलन जड़ें दक्षिण भारतीय भक्ति आंदोलन में हैं, लेकिन उसके बारे में उत्तर भारतीय हिंदी साहित्य में कोई ख़ास जानकारियाँ ही नहीं हैं। हमने संत-भक्तों को संत और भक्तों में बाँट दिया है, जब कि ऐसा कुछ है ही नहीं। प्रतिरोध इधर हिंदी साहित्य में मूल्यांकन की सर्वोपरि कसौटी हो गई, जबकि यह किसी स्वस्थ समाज की सामान्य और स्थायी अवस्था नहीं है। विडंबना यह है कि संत-भक्तों की पहचान और मूल्यांकन आजकल इस आधार पर हो रही हैं। विडंबना यह है साहित्य के मूल्यांकन के लिए उसका सौंदय और चारुता अब कसौटी ही नहीं रहे। तुलसीदास इस आधार पर प्रतिगामी हो गए। तुलसी के व्यक्तित्व, कार्य और साहित्य को देख-समझकर लगता है कि परिवर्तन और क्रांति बिना उखाड़-पछाड़ और तोड़-फोड़ के भी हो सकती है। उन पर इस निगाह विचार ही नहीं हुआ। विद्वानों ने उनको कबीर के सामने खड़ा कर दिया गया। कोई यह नहीं समझता कि एक स्वस्थ समाज को दोनों की ज़रूरत पड़ती है। बस चल निकला, इसलिए चल रहा है- एक बार मनीषी विद्वान् वागीश शुक्ल ने पूछा कि कोई बताए कि हिंदू-मुसलमानों में कथित रूप से समान लोकप्रिय कबीर के कितने मुसलमान अनुयायी हैं? उनकी मान्यता और स्वीकार्यता तो आख़िर हिंदुओं में ही है। रामचंद्र शुक्ल बहुत बड़े विद्वान थे, लेकिन तुलसी में वे ऐसे रमे कि उनकी कविता का लोक संग्रह और उसमें जीवन का विस्तार और वैविध्य उनकी साहित्य के मूल्यांकन की कसौटी ही बन गए। सूरदास का मूल्यांकन उन्होंने इसी आधार किया। चल पडा- हमने बाद में कभी इसको परखने की ज़रूरत ही नहीं समझी। हमने देखा ही नही कि सूरदास जीवन के समर्थन में खड़े बहुत बड़े कवि हैं। उन्होंने जीवन का विरोध करने वालों का जैसा उपहास किया, वैसा किसी और कवि ने कभी नहीं किया। जायसी की भी एक पहचान बन गयी है, जो  इस्लाम, सूफ़ी मत और फ़ारसी से अनजान लोगों ने बनाई है। अभी मुजीब रिज़वी की जायसी पर एक बहुत ज़रूरी किताब आयी है। उनका साफ़ मानना है कि जायसी इस्लाम और सूफ़ी मत में डूबे हुए कवि हैं। जो लोक उनकी कविता में बहुत मुखर और सघन दिखाई पड़ता है वो केवल ‘ओट’ है।

प्रश्न: आपके मीरां पर काम की चर्चा हुई है। आपके अनुसार उसमें क्या क्या ख़ास है?

उत्तर: मीरां के जीवन और समाज पर एकाग्र पुस्तक ‘पचरंग चोला पहर सखी री’ 2015 में आयी थी और अब 2020 में इसका प्रदीप त्रिखा द्वारा अनूदित अंग्रेजी संस्करण ‘मीरां वर्सेस मीरां’ प्रकाशित हुआ है। मीरां की कविता की एक पंक्ति है- कोई निंदौ कोई बिंदौ, मैं तो चलूंगी चाल अपूठी। मतलब यह कि कोई निंदा करे या सराहना, मैं ‘अपूठी’ चलूंगी। ‘अपूठी’ का मतलब है उल्टा या विमुख। अपने इस निश्चय के कारण मीरां का जीवन और कविता रूढ़ि से अलग और रूपक से बाहर है। पचरंग चोला में मीरां के इस अलग और ख़ास रूप की पहचान का प्रयास है। कुछ भी होने से पहले मीरां एक मनुष्य अस्तित्व है, उसकी जीवन यात्रा एक मनुष्य की जीवन यात्रा है, इसलिए यहाँ कोशिश उसके मनुष्य अनुभव और संघर्ष के संकेतों की इतिहास, आख्यान, लोक, कविता आदि में पहचान और उनकी एक-दूसरे से पुष्टि और विस्तार की है। यह दावा नहीं है कि यह अंतिम और पूर्ण कोशिश है। यह गुंजाइश है और आगे भी रहेगी कि इन संकेतों का कोई नया संदर्भ सामने आए।

प्रश्न: आप के मीरां संबंधी कार्य पर यह आरोप है कि उसमें हिन्दी की मीरां संबंधी आलोचना की अनदेखी की गई है। आप क्या कहते हैं ?

उत्तर: यह आरोप आधारहीन है। ‘पचरंग चोला पहर सखी री’ में हिंदी आलोचना की परंपरा है। कोई भी प्रस्थान परंपरा के योग के बिना संभव नही है। परंपरा के संबंध में ख़ास बात यह है कि यह होकर भी दिखती नहीं है। परंपरा की जगह कभी-कभी खूँटे ले लेते हैं, जो दिखते ख़ूब हैं। परंपरा अपने खाद-पानी से आपको प्रस्थान में प्रवृत्त करती है, आपको मुक्त करती है, लेकिन खूँटे आपको बाँधते हैं। दुर्भाग्य से हिन्दी में परंपराएँ कम, खूँटे ज़्यादा हैं। हिन्दी में मीरां को लेकर सोचने-समझने की परंपरा तो है, लेकिन सौभाग्य से कोई खूँटा अभी तक नहीं बना है। हिन्दी आलोचना का ध्यान ही मीरां की तरफ़ बहुत कम गया। जो थोड़ा बहुत ध्यान गया, वो मीरां से संबंधित प्रचारित आरंभिक जानकारियों तक सीमित रहा। मुंशी देवीप्रसाद ने और कई कवियों के साथ मीरां से संबंधित आरंभिक जानकारियाँ मिश्रबंधुओं को उपलब्ध को करवाईं। मिश्रबंधु विनोद से लेकर इनका उपयोग रामचंद्र शुक्ल ने किया। रामचंद्र शुक्ल के कंधों पर हिंदी साहित्य को एक अकादमिक अनुशासन में ढालने का महत्त्वपूर्ण दायित्व भी था, इसलिए उनकी चिंताएँ और सरोकार दूसरे थे। वे मनीषी थे- सूर, तुलसी, जायसी पर उन्होंने विस्तार और मनोयोग से विचार किया, लेकिन फुटकर की श्रेणी में वाले रचनाकारों की नयी पहचान और समझ बनाने के बजाय उनका ज़ोर उनको किसी वर्गीकरण और विभाजन ‘फ़िट’ में रखने पर ज़्यादा रहा। उन्होंने मुंशी देवीप्रसाद की जानकारियों को पुनः प्रस्तुत करते हुए मीरां की भक्ति-उपासना को अपनी तरफ़ से माधुर्य भाव के खाँचे में रख दिया। हिन्दी की अकादमिक आलोचना में मीरां की यह पहचान रूढ़ि बन गई।

प्रश्न: कुछ वामपंथी और स्त्री विमर्शकार आपकी स्थापनाओं को आधारहीन और मनमाना मानते हैं। यह कितना सही है?

उत्तर: उनका ऐसा मानना बहुत स्वाभाविक है। यह अपेक्षित भी है। ‘पचरंग चोला’ में रूढ़ि और रूपक से परहेज़ किया गया है। यह विडंबना ही है कि हिंदी आलोचना में रूपकों पर निर्भरता का रिवाज़ कुछ ज़्यादा ही है। इसमें पहले विचार के रूपकों का बोलबाला रहा और अब विमर्श के नए रूपकों का बाज़ार गर्म है। रूपक निर्मिति या संरचना है-उसमें ज़ोर व्यवस्था और एकरूपता पर होता है। अलग, आगे, हटकर और अतिरिक्त के लिए उसमें जगह मुश्किल से ही निकलती है। इस सबकी इसमें या तो अनदेखी होती है या काट-छाँट। मनुष्य का रूपकीकरण संभव नहीं है, क्योंकि इधर-उधर, आगे-पीछे, अलग और अतिरिक्त, ये सब मनुष्यता के बुनियादी गुणधर्म हैं। रूपक में ढालने के दौरान किसी मनुष्य अस्तित्व में जैसे ही हमें इधर, उधर और अतिरिक्त कुछ दिखता है, तो लगता है यह अंतर्विरोध या यह विसंगति है। यदि कोई मनुष्य है, तो यह सब होना उसके मनुष्य होने में शामिल है। रूपकों की आदत और संस्कार वाले लोगों को पचरंग चोला की मीरां अच्छी नहीं लगी। यह रूपक की सीमित मीरां से अलग इधर, उधर, अलग और अतिरिक्त मनुष्य मीरां थी। यह अलग-अलग रूपकों में ढली हुई सीमित और कटी-छँटी केवल भक्त या केवल विद्रोही या केवल प्रेमी या केवल पवित्रात्मा या केवल सामंत मीरां नहीं थी। यह एक साथ सामंत, विद्रोही, भक्त, प्रेमी, पवित्रात्मा, कवियित्री आदि सब थीं। उसमें एक मनुष्य अस्तित्व में जो होता है, कमोबेश सभी कुछ था।

प्रश्न: क्या मीरां विद्रोही स्त्री थी?  साहित्य और इतिहास उसकी पहचान तो ऐसी है।

उत्तर: हिंदी में रिवाज यह है कि एक बार कोई पहचान बन जाती है तो उसके विरुद्ध कुछ कहना लोगों को कम पचता है। ‘पचरंग चोला’ में मीरां का यह मनुष्य रूप रूढ़ि और रूपक में सोचने-समझने के संस्कारी और अभ्यासी लोगों को को अच्छा नहीं लगा। कुछ लोग उसे विद्रोह की रूढ़ि में ही देखना चाहते थे, जबकि कुछ अन्य की अपेक्षा थी कि वह पितृसत्तात्मक अन्याय और उत्पीडन के रूपक में होती। वैसे भी विद्रोह विभक्त मनोदशा वाले भारतीय मध्य वर्ग की काम्य छवि है। अपने निजी जीवन से बाहर विद्रोह के रूपक और छवियाँ गढ़ना-ढूंढ़ना उसका प्रिय शग़ल है। मीरां ने विद्रोह नहीं किया, ऐसा नहीं है। मीरां ने विद्रोह किया, लेकिन यह एक सामान्य पारिस्थितिक विद्रोह था। इसको किसी साँचे-खाँचे के विद्रोह की तरह देखना-समझना ग़लत होगा। यह विद्रोह की निर्धारित सैद्धांतिकी का सत्ता के विरूद्ध स्थायी प्रतिरोध जैसा विद्रोह नहीं है। इसे वैसा बनाने के लिए काट-छाँट और जोड़-बाकी करनी पड़ेगी, जो उसके असल विद्रोह को ही बदल देगी। विमर्श की सैद्धांतिकी के अनुसार स्त्री के दुःख का कारण पितृसत्तात्मक अन्याय और उत्पीड़न है। मीरां इसके सिद्धांताकारों को इसी रूपक में जँचती है। मीरां उनके अनुसार पितृसत्तात्मक संस्थाओं और विश्वासों के विरोध में खड़ी है। यह सही है कि हम पितृसत्तात्मक समाज हैं, लेकिन हम यह भूल जाते हैं कि यूरोप की एकरूप पितृसत्ता की तुलना में यह हमारे यहाँ यह कई रूप लिए हुए है। पितृसत्ता भी यदि एक सांस्कृतिक संरचना है, तो इसकी सार्वभौमिक और सार्वकालिक पहचान कैसे संभव है? हमें यह तो देखना ही पड़ेगा कि कौन-सा पितृसत्तात्मक समाज स्त्री को मनुष्य होने की जगह ज़्यादा देता है। मीरां का कृष्ण से प्रेम उसकी पति से नाराज़गी के कारण नहीं है। यह पारंपरिक भक्ति संस्कार के कारण है, इसलिए पारिस्थितिक है। मीरां जिस पितृसत्तात्मक समाज में है, वही उसे मीरां होने का साहस भी देता है और उसके इस साहस का सदियों तक सम्मान भी करता है। रूपक में सुविधा होती है, उसका सम्मोहन भी होता है, लेकिन कई बार इसकी तांत्रिक ज़रूरतें आपको बहुत ग़लत और आधारहीन निष्कर्षों पर पहुँचा देती है। आपको पता ही नही लगता है कि आप वहाँ पहुँच गए हैं, जो है ही नहीं। मीरां के संबंध में ऐसा बहुत हुआ। विमर्शकारों ने यह कह दिया कि मीरां ने यौन शुचिता को चुनौती दी। जो लोग मीरां के समाज और उसके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य के जानकार हैं, वे यह जानते हैं कि यह संभव नहीं है। मीरांकालीन समाज में स्त्रियों की हालत और हैसियत को लेकर जो धारणाएँ बनाई गई हैं उनका भी हक़ीक़त से कोई रिश्ता नहीं है और ये ज़्यादातर रूपक की ज़रूरत के तहत गढ़ी-बनाई गई हैं।

प्रश्न: आपने इस किताब में कहा है कि भारतीय समाज ठहरा हुआ नहीं है। क्या ऐसा मानना हक़ीक़त से भागना नहीं है?

उत्तर: नहीं, ऐसा नहीं है। मैं ही नहीं, अब कई विद्वान यह मानने लगे हैं। भारतीय समाज ठहरा हुआ है, यह धारणा उपनिवेशकालीन यूरोपीय विद्वानों ने बनाई। इसके पीछे उनके औपनिवेशिक स्वार्थ थे। यहाँ अपने बने रहने का उनके पास यही एक तर्क था। ‘पचरंग चोला’ का भारतीय समाज उससे अलग असल भारतीय समाज है। ‘पचरंग चोला’ में इसकी यह पहचान कुछ ही लोगों को अच्छी लगी, लेकिन शेष ज़्यादातर लोगों ने उसको पसंद नहीं किया। पसंद नहीं करने वाले ज़्यादातर लोग वही हैं, जिन्होंने इस समाज के बारे में अपनी राय पहले से बना रखी है। जो तयशुदा है, उसको बदलना आसान काम नहीं है। वास्तविकता, जो बहुत विविध और जटिल है और निरंतर बदलती भी रहती है, उसको समझना और उसकी नयी पहचान बनाना बहुत मुश्किल काम है। इसको किसी तयशुदा रूपक में ढालकर व्यवस्थित कर लेना सुविधाजनक और आसान है। इस ‘शार्टकट’ से बनी मीरां के समाज की एक रूपकीय पहचान विचार और विमर्श पर निर्भर लोगों के पास पहले से है। इस पहचान का हक़ीक़त से कोई संबंध नहीं है। यह पहचान शास्त्र निर्भर पहचान है और इसका सामाजिक जीवंत गतिशीलता से कोई लेना-देना नहीं है। शास्त्र अक्सर रूढ़ियो से बनते हैं। सही तो यह है कि रूढ़ि शास्त्र का प्रस्थान और बुनियाद, दोनों हैं। जब तक रूढ़ि शास्त्र बनती है, समाज उसको छोड़ कर आगे निकल चुका होता है, इसलिए शास्त्र के आधार पर किसी समाज की पहचान और समझ हमेशा आधी-अधूरी होती है। मीरां का समाज रूढ़ियों के ढेर से बने शास्त्र से बाहर का अलग समाज है। भक्ति आंदोलन जीवंत और गतिशील अपने लोक-समाज के खाद-पानी से है। यह समाज उसको धारण भी करता है और उसको संरक्षण भी देता है। अब यह कैसे हो सकता है कि भक्ति आंदोलन तो अच्छा है, लेकिन उसको धारण करनेवाला और उसको खाद-पानी देने वाला समाज ख़राब है।

प्रश्न: आप पर यह भी आरोप है कि आप मीरां को समझने के लिए उसकी कविता से बाहर पर ज़्यादा भरोसा करते हैं। यह कहाँ तक ठीक है?

उत्तर:  यह सही बात है कि ‘पचरंग चोला’ में केवल मीरां की कविता पर निर्भरता कम है। मीरां के जीवन से संबंधित ज़्यादातर उपलब्ध विमर्श और आख्यान उसकी कविता के अंतःसाक्ष्यों पर आधारित हैं। इस कारण उसके जीवन के संबंध में कई कथाएँ और प्रवाद चल निकले हैं। मीरां की कविता का चरित्र ऐसा है कि केवल इस पर निर्भरता आपको ग़लत और भ्रामक निष्कर्षों पर ले जा सकती है। दरअसल मीरां की कविता सदियों से केवल मीरां की कविता नहीं है। यह ऐसी है कि हमारा लोक भी उसमें रच-बस गया है। उसमें हमारे लोक के सुख-दुःख और कामनाओं का की जमकर  जोड़-बाकी हुई है। मीरां कविता इस जोड़-बाकी से इतनी समावेशी और उदार और लचीली हो गई है कि इससे आप कुछ भी सिद्ध कर सकते हैं। यहाँ भी कविता के अंतःसाक्ष्यों का इस्तेमाल वहीं हैं, लेकिन वहाँ जहाँ इतिहास, आख्यान और लोक की किसी धारणा या तथ्य की पुष्टि के लिए अपेक्षित है।

प्रश्न: मीरां के समझ बनाने में आप की निर्भरता देशज स्रोतों पर ज़्यादा है। क्या इनकी प्रामाणिता संदिग्ध नहीं है?

उत्तर:  यह विडंबना है कि कुछ लोग अभी भी देशज स्रोतों को प्रामाणिक नहीं मानते। अलबत्ता ऐसे ही यूरोपीय और इस्लामी स्रोतों के लिए उनके मन में सम्मान है। दरअसल ‘प्रामाणिक साक्ष्य’ का यह ख़ास आग्रह का इतिहास की यूरोपीय शिक्षा और संस्कार से आया है और विडंबना यह है यह आज भी बरकरार है। दरअसल भक्तमाल, परची, चरित, बही, विगत, वंश, ख्यात आदि रचनाएँ और जनश्रुतियाँ हमारे समाज के सांस्कृतिक व्यवहार का ज़रूरी हिस्स्सा हैं। ये सब उसकी सांस्कृतिक भाषा भी हैं। कोई इनको जाने-समझे बिना इस समाज को समझने का दावा करता है, तो वह मुगालते में है। सभी देश-समाज यूरोप जैसे होंगे और वहाँ भी वही सब मिलेगा, जो यूरोप में मिलता है, यह आग्रह ही ग़लत है। रबीद्रनाथ ठाकुर ने तो यह बहुत आरंभ में समझ लिया था। उन्होंने एक जगह कहा था कि “दरअसल इस अंधविश्वास का परित्याग कर दिया जाना चाहिए कि सभी देशों के इतिहास को एक समान होना चाहिए। रॉथ्सचाइल्ड की जीवनी को पढ़कर अपनी धारणाओं को दृढ़ बनाने वाला व्यक्ति जब ईसा मसीह के जीवन के बारे में पढ़ता हुआ अपनी ख़ाता-बहियों और कार्यालय की डायरियों को तलाश करें और अगर वे उसे न मिलें, तो हो सकता है कि वह ईसा मसीह के बारे में बड़ी ख़राब धारणा बना ले और कहे: ‘एक ऐसा व्यक्ति जिसकी औकात दो कौड़ी की भी नहीं है, भला उसकी जीवनी कैसे हो सकती है?’ इसी तरह वे लोग जिन्हें ‘भारतीय आधिकारिक अभिलेखागार’ में शाही परिवारों की वंशावली और उनकी जय-पराजय के वृत्तांत न मिलें, वे भारतीय इतिहास के बारे में पूरी तरह निराश होकर कह सकते हैं कि ‘जहाँ कोई राजनीति ही नहीं है, वहाँ भला इतिहास कैसे हो सकता है?’ लेकिन ये धान के खेतों में बैंगन तलाश करने वाले लोग हैं। और जब उन्हें वहाँ बैंगन नहीं मिलते हैं, तो फिर कुण्ठित होकर वे धान को अन्न की एक प्रजाति मानने से ही इनकार कर देते हैं। सभी खेतों में एक-सी फ़सलें नहीं होती हैं। इसलिए जो इस बात को जानता है और किसी खेत विशेष में उसी फ़सल की तलाश करता है, वही वास्तव में बुद्धिमान होता है।” ‘पचरंग चोला’ में संकल्प और आग्रहपूर्वक धान के खेत में धान ही तलाशा गया है और इसमें इसीलिए मीरां के समाज के सांस्कृतिक व्यवहार और भाषा की सब चीज़ों को आग्रहपूर्वक ‘साक्ष्य’ की जगह भी दी गई है।

प्रश्न: अपने साहित्य अकादेमी के लिए एक मीरां के पदों एक संकलन ‘मीरां रचना संचयन’  तैयार किया। मीरां पदों के पहले से इतने संकलन हैं, फिर इसकी अलग से क्या ज़रूरत है?

उत्तर: मीरां के पदों के कई संकलन हैं, उसके पद धार्मिक गुटकों में हैं और उसके पद-भजनों के कई प्रसिद्ध गायकों के ओडियो-वीडियो हैं। बावजूद इसके मीरां के पदों के इस संकलन की ज़रूरत थी, क्योंकि मीरां की रचनाओं में जो ‘अलग’ और ‘ख़ास’ है, वो अक्सर इनमें छूट गया है। ये संकलन-गुटके और ओडियो-वीडियो किसी ख़ास आग्रह और ज़रूरत के तहत बने हैं, इसलिए इनमें मीरां की कविता के सभी रंग और छवियाँ शामिल नहीं हैं। मीरां की कविता इस तरह की नहीं है कि इसको किसी आग्रह या विश्वास तक सीमित किया जा सकता हो। उसमें वह सब वैविध्य है, जो जीवन में आकंठ डूबे-रंगे मनुष्य के सरोकारों में होता है। पहले बने आधुनिक विद्वानों के संकलनों की मुशिकल यह है कि कहीं कहीं इनमें ‘मूल’ ‘प्रामाणिक’ आग्रह भी है, जो भारतीय लोक स्वभाव नहीं है। मीरां की कविता बहुत अलग क़िस्म की कविता है। ख़ास बात यह है कि यह ठहरी हुई और दस्तावेज़ी कविता नहीं है। यह लोक में निरंतर बनती-बिगड़ती हुई जीवंत कविता है। यह लोक में रही, यहीं पली-बढ़ी और बदली, इसलिए मूल, प्राचीन और हस्तलिखित का आग्रह करने वाले ‘आधुनिकों’ को यह किसी अजूबे जैसी लगती है। उसका एक पद एक जगह अलग तरह से और दूसरी जगह अलग तरह से है। लोक के साथ उठने-बैठने के कारण यह इतनी समावेशी, लचीली और उदार है कि सदियों से लोक इसे अपना मानकर इसमें अपनी भावनाओं और कामनाओं की जोड़-बाकी भी कर रहा है। यह इस तरह की है कि लोक की स्मृति से हस्तलिखित होती है और फिर हस्तलिखित से एक लोक की स्मृति में जा चढ़ती है। लोक स्मृति में मीरां के नाम से प्रसिद्ध और मीरां की छापवाली हजारों पद मिलते हैं और ये आज के हिसाब से एकाधिक भाषाओं में भी हैं। मीरां की रचनाओं का निरंतर रूपांतर हुआ है और यह ज़्यादातर इधर-उधर, संवर्धन और सरलीकरण के रूप में है और अपने ‘असल’ से ज़्यादा दूर नहीं है। इस संचयन ‘मूल’ और ‘प्रामाणिक’ का आग्रह नही है। इसमें लोक स्मृति पर भरोसा किया गया है। यह नहीं होने से औपनिवेशक शिक्षा और संस्कारवाले विद्वानों को आपत्ति होगी, लेकिन इसमें आग्रह उन सभी रचनाओं को सम्मान देने का है, जो सदियों तक लोक की स्मृति में जीवंत बनी रहीं। भारतीय जनसधारण का स्वभाव है कि वह इस तरह की रचनाओं को ही जीता-बरतता है। उसके व्यवहार कथित ‘मूल’ का आग्रह नहीं है। इसमें संकलित पद इसीलिए उन उपलब्ध सभी स्रोतों से भी लिए गए हैं, जो स्मृति पर निर्भर हैं। मीरां की अपनी कविता स्मृति में लोक की निरंतर जोड़-बाकी के बावजूद बहुत कुछ बची रही है। केवल मीरां की कविता में ही ऐसा नही हुआ। अधिकांश भारतीय संत-भक्तों की कविता स्मृति निर्भर कविता है और यह अप्रामाणिक नहीं है। दरअसल यह मीरां की समावेशी और लचीली कविता का समावेशी संकलन है।

प्रश्न: आपने मुनि जिनविजय पर भी लिखा। उनको कम लोग जानते हैं। उनमें क्या ख़ास है?

उत्तर: यह विडंबना है कि मुनि जिनविजय को कम लोग जानते हैं। केवल कविता-कहानी वाली पीढ़ी तो उनको बिल्कुल नहीं जानती। वे भारतीय ज्ञान के पुनरुत्थान की गांधी जी मुहिम में अगुआ थे। उन्होंने भारतीय साहित्य की बुनियाद माने जानेवाले ग्रंथों की खोज की और उनका पाठ संपादन करके उनको प्रकाशित करवाया। मुनि जिनविजय के काम का आकलन और मूल्यांकन नहीं हुआ।  उनके अनुसंधान से हिंदी भाषा और साहित्य को अपने पाँवों पर खड़े होने की ज़मीन मिली, उनके काम से भारतीय राजनीतिक और सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास के कई नए पहलू उजागर हुए, लेकिन इसका श्रेय उनको कम लोगों ने दिया। उनके अनुसंधान का मनोनीत क्षेत्र प्राचीन साहित्य था, इसलिए आधुनिक होने की हड़बड़ी और जल्दबाज़ी में आलोचक-इतिहासकारों ने उनके काम को महत्त्व ही नहीं दिया। उनके नाम में प्रयुक्त ‘मुनि’ पद भी उनके काम के मूल्यांकन में बाधा बन गया। उनका मुनि जिनविजय नाम संयोग से था- उनके आरंभिक इक्कीस वर्षीय जीवन के जो कई रूप और वेश थे, उनमें मुनि जिनविजय अंतिम था और इसके औपचारिक परित्याग के बाद भी यही नाम संज्ञा उनके साथ आजीवन रही। हिंदी के आधुनिक माहौल में यह नाम संज्ञा उनके काम के मूल्यांकन में अवरोध बन गई। उनके बहुत महत्त्वपूर्ण कार्यों को किसी साधु द्वारा किए धार्मिक-सांप्रदायिक कार्य की श्रेणी में डाल दिया गया। मुनि जिनविजय के कार्य का अधिकांश जैन धर्म और प्राकृत-अपभ्रंश से संबंधित था, इसलिए भी इसकी उपेक्षा-अवहेलना हुई। हिंदी भाषा और साहित्य की पहचान क़ायम करने वाले आरंभिक लोगों ने यह धारणा बना ली थी कि जैन साहित्य सांप्रदायिक और धार्मिक है और उसका साहित्यिक महत्त्व नगण्य है। यह धारणा हिंदी भाषा और साहित्य के विकास की सही और समग्र पहचान बनाने में अंतर्बाधा बन गई। हिंदी का बहुत सारा श्रेष्ठ साहित्य इस कारण इसके दायरे से बाहर हो गया। मुनि जिनविजय द्वारा अन्वेषित और संपादित बहुत सारा साहित्य जैनेतर भी था, लेकिन इस अंतर्बाधा के चलते कम लोगों का ध्यान उधर गया। आगे चलकर केवल हजारीप्रसाद द्विवेदी ने मुनि जिनविजय की अन्वेषित और संपादित जैन और जैनेतर कुछ रचनाओं के हिंदी भाषा और साहित्य के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान की पहचान की। यह काम एक तरह उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन है।

प्रश्न: आपकी किताब ‘पचरंग चोला पहर सखी री’ का अंग्रेज़ी अनुवाद ‘मीरां वर्सेज़ मीरां’ आया है। इसकी ज़रूरत क्यों  महसूस हुई?

उत्तर: यह विचार हिंदी में किताब आने के समय से ही था। दरअसल यूरोपीय ज्ञान मीआंसा और उससे भारतीय प्रभावित अंगेजी साहित्य में मीरां में दिलचस्पी बहुत पहले से है, लेकिन उसको लेकर इनमें भ्रांतियाँ बहुत हैं। जैसे कि मीरां हाशिये का स्वर है या मीरां का समाज ठहरा हुआ है या मीरां के साथ अन्याय हुआ या वह वंचित-उत्पीड़ित स्त्री है। यहाँ तक कि कुछ यूरोपीय विद्वान् तो मीरां के ऐतिहासिक अस्तित्व को ही संदिग्ध मानते हैं। मीरां पर वहाँ पहले भी लिखा गया और अब भी निरंतर लिखा जा रहा है। यह लिखना अक्सर एक परियोजना के तहत होता है। आप मीरां से जुड़े स्थानों यात्रा करते हैं, सामग्री जुटाते हैं, कुछ लोगों से सवाल-ज़वाब करते हैं और इस तरह आपकी किताब बन जाती है। यह तरीका ऐसा है कि न तो आप मीरां को समझ पाते हैं और न ही उसके समाज को। भारतीय समाज जैसा सतह पर दिखता है, उससे बहुत ज़्यादा अपने भीतर है। इसमें रह-जीकर और इसमें डूबकर ही आप इसे अच्छी तरह समझ सकते हैं। भारतीय इतिहास और समाज को समझने के लिए ये विद्वान अक्सर उन स्रोतों का सहारा लेते हैं, जो देशज नहीं हैं। यह किताब ऐसे बनने वाली मीरां का प्रतिपक्ष है, इसलिए इसका नाम ‘मीरां वर्सेज़ मीरां’ रखा गया। है। यह किताब उन अंग्रेजी पाठकों को ध्यान रखकर लायी गयी है, जो मीरां को यूरोपीय और भारतीय अंग्रेज़ी स्रोतों से जानते-समझते हैं।

प्रश्न : पुस्तक श्रृंखला 'कालजयी कवि और उनका काव्य' के अमीर ख़ुसरो, मीरां, तुलसीदास, सूरदास, कबीर, रैदास, गुरु नानक, बुल्लेशाह, रहीम, जायसी, सहजोबाई और लालन फ़क़ीर  जैसे महान् रचनाकारों की चुनिंदा रचनाओं का चयन एवं संपादन किया है। प्रश्न है कि इन रचनाकारों के चयन का ख़्याल आपके मन में कैसे आया?

उत्तर : दरअसल हमारे अधिकांश मध्यकालीन साहित्यकारों की पहचान उपनिवेशकाल में बनी। उपनिवेशकालीन यूरोपीय अध्येताओं के इसमें निहित साम्राज्यवादी स्वार्थ थे। प्रजातीय श्रेष्ठता के बद्धमूल आग्रह के कारण भारतीय समाज और संस्कृति के संबंध के उनका नज़रिया अच्छा नहीं था, इसलिए इन साहित्यकारों की जो पहचान उस दौरान बनी वो आधी-अधूरी है। आरंभिक भारतीय भारतीय मनीषा भी कुछ हद तक इसी औपनिवेशक ज्ञान मीमांसा से प्रभावित थी, इसलिए इन पहचानों में कोई बड़ा रद्दोबदल नहीं हुआ। अब हमारा स्वतंत्रता का अनुभव वयस्क है और हमारी मनीषा भी धीरे-धीरे औपनिवेशिक ज्ञान मीमांसा से मुक्त हो रही है। यह शृंखला इन रचनाकारों की नयी पहचान और मूल्यांकन का प्रयास है। शृंखला में रचनाकारों की ऐसी रचानाएँ को तरजीह दी गयी, जो किसी आग्रह और स्वार्थ और उद्देश्य से अलग रचनाकार को उसकी समग्रता में प्रस्तुत करती हैं। रचनाकार और और उसकी रचनाओं परिचय भी इस तरह दिया गया है कि यह उनसे संबंधित अद्यतन शोध और विचार-विमर्श पर एकाग्र है। जल्दी ही आप इस शृंखला में कुछ और रचनाकारों से रूबरू होंगे।

प्रश्न : शृंखला में गुरु नानक और बुल्ले शाह भी हैं। इन्हें इसमें शामिल करने के पीछे क्या प्रयोजन है?

उत्तर : भक्ति आंदोलन की जो पहचान हिंदी भाषी समाज में है, वो केवल हिंदी के सूर, कबीर, तुलसी, जायसी आदि तक सीमित है। भक्ति आंदोलन का दायरा बहुत बड़ा है। इसकी व्याप्ति हिंदी के अलावा जो देश भाषाएँ तक हैं उनमें भी है। गुरु नानक और बुल्ले शाह इस व्यापक भक्ति आंदोलन का हिस्सा हैं। गुर नानक उच्च कोटि के संत और कवि होने के साथ महान दार्शनिक भी हैं। बुल्ले शाह की कविता हमारे युवा वर्ग बहुत लोकप्रिय है। उनकी मनुष्य के अपने अस्तित्व जानने-समझने की जद्दोजहद में जब्म लेती है। भक्ति आंदोलन की को समग्र रूप से जानने -समझने के लिए हिंदी भाषी समाज दूसरी भाषाओं के महान कवियों को भी समझना चाहिए। 

प्रश्न : अमीर ख़ुसरो की भाषा आज भी बहुत से लोगों के लिए आश्चर्य का विषय है? आश्चर्य करने वाले लोगों का मानना है कि आख़िर अमीर ख़ुसरो की हिंदवी इतनी सुंदर और निखरी हुई कैसे है? जबकि उनके समकालीन अन्य किसी भी रचनाकार की भाषा इतनी अच्छी एवं परिमार्जित नहीं है। आप इसे कैसे देखते हैं?

उत्तर : अमीर ख़ुसरो केवल भाषा की दृष्टि से ही नहीं, और सभी दृष्टियों अद्भुत और आपको बार-बार चमत्कृत कते हैं। उनका व्यक्तिगत जीवन तो और भी अद्भुत है। उसके सबंध कहा गया है कि यह जैसा है, वैसा देखकर किसी तितली भी को भी रश्क हो जाए। ख़ुसरो अपने समय में बहुत प्रभावशाली दरबारी कवि और योद्धा थे। वे  फ़ारसी लिखते थे। वे एक के बाद एक आठ सुल्तानों के अधीन रहे और आश्चर्य यह है कि वे सभी के प्रिय थे। उन्होंने सबसे अधिक फ़ारसी में लिखा। भारत के बाहर उनकी ख्याति भी उनके फ़ारसी लेखन के कारण ही है। उनको ‘तूती-ए-हिंद’ कहा जाता था। ‘हिंदवी’ यह नाम उनका दिया हुआ है और इसमें उन्होनें बहुत कम लिखा और जो लिखा वह केवल मौखिक परंपरा से आगे तक आया है। देश भाषा से उनका लगाव था।  लगता है यह निजामुद्दीन औलिया के संपर्क में रहने के कारण है। सूफियों की जड़ें यहाँ के समाज और संस्कृति में थी। ख़ुसरो को खुद भी हिंदुस्तान से लगाव था। ‘नुह सिपर’ उन्होंने लिखा है कि यही “मेरा जन्मस्थान है और यही मेरी मातृभूमि है।” यह संयोग है कि ख़ुसरो फ़ारसी के उस्ताद थे, लेकिन उनकी दैनंदिन व्यवहार की भाषा उस समय की खड़ी बोली थी, इसलिए उन्होंने खड़ी बोली में भी कहा-लिखा।  

प्रश्न : सूरदास के काव्य में प्रधान रूप से विनय भक्ति, वात्सल्य और प्रेम-शृंगार पक्षों पर ज़ोर दिया गया है। लेकिन ऐसा क्या है, जिसके कारण सूरदास वात्सल्य रस के अद्वितीय कवि कहलाते हैं और वात्सल्य रस की दृष्टि से अन्य कोई कवि/रचनाकार उनके आस-पास भी दिखाई नहीं देता है। आचार्य शुक्ल ने तो कहा ही है कि- 'सूरदास अपनी बंद आंखों से बाल हृदय का कोना-कोना झाँक आए हैं।'

उत्तर : सूरदास का मूल्यांकन ठीक से नहीं हुआ। रामचंद्र शुक्ल आदि ने उन्हें वात्सल्य, विरह आदि का सीमित सरोकारों वाले कवि मान लिया। सूरदास वात्सल्य के कवि हैं और यह उअंकी कविता बहुत खूबसूरत ढंग से है, लेकिन उनकी कविता में जीवन का जैसा वैविध्य है, वैसा मध्यकालीन हिंदी कविता में अन्यत्र दुर्लभ है। ख़ास बात यह है कि जीवन का यह राग-रंग उनके यहाँ ऐंद्रिक सघनता और गहरे भावावेग के साथ साथ है। सूरदास का समय बहुत विचित्र था- निर्ग़ुण की जो हवा चल रही थी जनसाधारण पर उसका असर था। जीवन के प्रति अनुराग और उसका आनंद लेने में ‘जगत मिथ्या’ की धारणा अंतर्बाधा बनती जा रही थी। हालत ऐसी थी कि जीवन न उगलते बनता था और न निगलते। ऐसे समय में भगवान को सूरदास ने देश, मतलब अपने समय, स्थान और संबंध के दायरे लाकर जीवन से प्रेम करना सिखाया। यही नहीं, उन्होंने जनसाधारण को अपने विवेक और समझ से निर्ग़ुण का प्रतिरोध करने के सीख भी दी। वे लोकोत्तर के बजाय पाँव जमाकर मजबूती से जीवन के साथ खड़े रहे। सूरदास ने ढोल बजाकर समाज सुधारने का दावा नहीं किया, वे किसी आदर्श के पीछे भी नहीं चले, लेकिन अपने समय में उन्होंने जिस तरह से जीवन में डूबकर उसका समर्थन किया, उनके समय में उस तरह से किसी दूसरे संत-भक्त कवि ने नहीं किया। 

प्रश्न : तुलसीदास हिंदी के महान् रचनाकार हैं। जनसाधारण के बीच उनके साहित्य की व्याप्ति उनके महान् और असाधारण होने का प्रमाण हैं। किंतु प्रश्न यह उठता है कि कृष्ण काव्य धारा में जिस प्रकार मीरां, सूरदास, रसखान, नंददास आदि अनेक प्रमुख रचनाकार दिखाई देते हैं उसी प्रकार राम काव्य धारा में तुलसी के समान या उनके जैसा कोई बड़ा रचनाकार क्यों दिखाई नहीं देता है? आपकी दृष्टि में इसके पीछे क्या वजह हो सकती है?

उत्तर : तुलसी बहुत बड़े संत-भक्त और कवि हैं। उन्होंने हमारे आचार-विचार को बहुर गहरे और दूर तक प्रभावित किया।  उत्तर भारतीय जन साधारण की स्मृति और संस्कार में आज भी तुलसी और उनके राम की मौजूदगी दिखायी पड़ती है। कृष्ण भक्ति और उसकी कविता के फलने-फूलने का कारण कृष्ण का असाधारण व्यक्तित्व है। कृष्ण ऐसे लाचीले और समावेशी भगवान हैं, जो सबको अच्छे और प्रिय लगते हैं। यह ऐसे हैं कि हमारी आकांक्षाओं और अपेक्षाओं के अनुसार ढल जाते हैं। कृष्ण में लोकोत्तर कम है और हमारी पहुँच में आनेवाला जागतिक ज़्यादा है। वे हमारे जागतिक और देहिक राग-विराग के पोषक और उत्तेजक भी हैं। राम बड़े हैं और सबसे ख़ास बात यह कि वे मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। वे जनसाधारण के पूज्य है, जबकि कृष्ण उसके प्रिय हैं। कृष्ण भक्ति और काव्य के व्यापक प्रसार का कारण कृष्ण यही असाधारण व्यक्तित्व है। कृष्ण के व्यक्तित्व को केंद्र में रखकर सबसे अधिक कविताएँ लिखी गयीं, क्योंकि वे सहज ही हमारी कल्पना के दायरे में आ जाते हैं। तुलसी का महत्त्व इससे कम नहीं होता। तुलसी उस समय के समाज की ऐतिहासिक ज़रूरत हैं। तुलसी ने परंपरा और व्यवस्था के साथ रहकर समाज में जो सुधार किए उनका असर उत्तर भारत के जनसाधारण पर आज भी है। यह समाज आज भी तुलसी की शिक्षा और विचारों को जीने वाला समाज है। जॉर्ज ग्रियर्सन ही थे, जो तुलसी की सफलता के रहस्य को समझते थे। उन्होंने लिखा कि “मेरे मन में उत्तर भारत के धर्म के दो प्रमुख पद हैं‌- बौद्ध धर्म और उसके दो सहस्र वर्ष बाद तुलसीदास की शिक्षा। बौद्ध धर्म का व्यावहारिक परिणाम हुआ संपूर्ण भारत द्वारा विश्वबंधुता में निष्ठा की स्वीकृति। तुलसीदास ने इसमें यह भाव जोड़ दिया कि भगवान ही सबका पिता है।” बुद्ध परंपरा का प्रतिरोध थे, जबकि तुलसी उसके समर्थक। ख़ास बात यह है कि समर्थन में होकर भी तुलसी की हैसियत बुद्ध से किसी भी तरह कम नहीं है।  

प्रश्न : कबीर और रैदास में आपको क्या अलग-अलग और ख़ास लगता है?

उत्तर : हिंदी भाषा साहित्य की अकादमिकी ने वर्गीकरण और विभाजनों पर इतना ज़ोर दिया कि कबीर और रैदास जैसे संत-भक्त किसी एक पहचान में सीमित कर दिए। उनका विवेचन-विश्लेषण भी इसी आधार पर हुआ। कबीर को भक्ति से अलग ज्ञान तक सीमित कर दिया, जबकि उनके यहाँ भक्ति भी है। रैदास को निर्गुण के खाँचे में रख दिया, जबकि सगुण का स्वर भी उनमें है। इधर कबीर और रैदास पर नया काम हुआ है। जिनमें वे अपनी पारंपरिक पह्चानों से बाहर भी जाने-समझे गए। लिंडा हैस और स्ट्रेटन हौली आदि ने ऐतिहासिक कबीर को ‘अक्खड़’ और ‘कटुवाग्मितावाला’ मानकर उनकी वाणी को उनकी केवल इस तरह सरोकार और स्वरवाली रचनाओं तक सीमित कर दिया। वस्तुतः कबीर एक ऐतिहासिक अस्तित्व है और उनके स्वर का वैविध्य भी किसी तरह अटपटा नहीं है। रैदास संप्रदाय निरपेक्ष भक्ति के हिमायती थे, लेकिन कलियुग में इसके व्यवहार में आने को लेकर उनके मन में संदेह था। उन्होंने इसको अपनी वाणी में चरितार्थ करने की कोशिश की। उन्होंने लिखा कि‌– “संतो कुल पखी भगति ह्वैसी, कलिजुग मैं निपख विरला निबहैसी।” कलियुग सांप्रदायिक भक्ति होगी। कोई बिरला ही संप्रदाय निरपेक्ष भक्ति का निर्वाह कर पाएगा।

प्रश्न : पुस्तक श्रृंखला के प्रकाशन का एक उद्देश्य है कि यह भी है कि इसे हमारे साधारण पाठकों और युवा पीढ़ी के विद्यार्थियों को ध्यान में रखकर लिखा जा रहा है। मध्यकालीन रचनाकारों के साहित्य एवं जीवन को लेकर आप हमें हमारे पाठकों को क्या संदेश देना चाहेंगे?

उत्तर : हमारा मध्यकाल साहित्य के मामले में बहुत समृद्ध है। ख़ासतौर पर देश भाषाओं में साहित्यिक सक्रियता इस समय चरम पर है। साधारण पाठकों और विद्यार्थियों को इस समृद्ध विरासत की जानकारी होनी चाहिए। हमारे विश्वविद्यालयों में मध्यकाल का पठन-पाठन अब सीमित होता जा रहा है। वहाँ पठन-पाठन में व्यावसायिक प्रयोजनमूलकता का आग्रह बढ रहा है, जो बहुत दुःखद है। यह शृंखला युवा विद्यार्थियों और साधारणजन को हमारी समृद्ध से परंपरा से परिचित करवाएगी।      

संपर्क:  माधव हाड़ा : मो. 9414325302, ईमेल: madhavhada@gmail.com   

 

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